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श्राद्धविधि / १५८
जिस सार्थ में अधिकांश लोग क्रोधी हों, सुख के लालची हों और कृपण हों, वह सार्थं अपने स्वार्थ का नाश करता है ।
जिस वृंद में सभी नेता हों, सभी अपने आपको पंडित मानते हों, सभी महत्त्व को चाहते हों, वह वृंद अवश्य दुःखी होता है ।
जहाँ कैदी और वध्य पुरुषों को रखा जाता हो, जुए का स्थान हो, पराभव का स्थान हो, वहाँ नहीं जाना चाहिए। किसी के खजाने में और राजा के अन्तःपुर में भी नहीं जाना चाहिए ।
अमनोहर स्थान में, श्मशान में, शून्य स्थान में, चतुष्पथ में, भूसी या शुष्क घास फैलाया हो उस स्थान में, विषम स्थान में, ऊसर भूमि में, वृक्ष के अग्र भाग पर, पर्वत के अग्र भाग पर, नदीतट पर, कुए के किनारे पर तथा जहाँ भस्म, बाल, सिर की खोपड़ियाँ, अङ्गारे प्रादि पड़े हों, उस स्थान में दीर्घकाल तक नहीं रहना चाहिए। बहुत श्रम लगे तो भी जो करने योग्य कृत्य हों, उन्हें अवश्य करना चाहिए क्लेश से पराजित पुरुष पुरुषार्थ के फल को पा नहीं सकता है ।
"प्रायः आडम्बर रहित पुरुष सर्वत्र पराभव पाता है, अतः बुद्धिमान पुरुष को सर्वत्र विशेष आडम्बर नहीं छोड़ना चाहिए । विदेश में जाने वाले को तो विशेषकर अपनी योग्यतानुसार आडम्बर सहित और सम्पूर्णतया धर्मनिष्ठ बनना चाहिए। क्योंकि उसी से मान-सम्मान तथा इष्टकार्य की सिद्धि सम्भव होती है ।"
विदेश में अधिक लाभ हो जाय तो भी बहुत लम्बे समय तक नहीं रहना चाहिए । विदेश में लम्बे समय तक रहने से काष्ठ श्रेष्ठी आदि की तरह गृहकार्य की अव्यवस्था आदि दोष उत्पन्न होते हैं ।
सामूहिक रूप से क्रय विक्रय आदि का आरम्भ करना हो तो विघ्ननाश और इष्टलाभ प्राप्ति आदि की सिद्धि के लिए पंच परमेष्ठी का स्मरण और गौतम स्वामी आदि का नाम लेना चाहिए और उसमें से कुछ वस्तु देव गुरु आदि को समर्पित करने का संकल्प करना चाहिए। क्योंकि धर्म की प्रधानता से ही सर्वत्र सफलता प्राप्त होती है ।
5 श्रेष्ठ मनोरथ 5
धनार्जन के लिए कुछ भी प्रारम्भ करना हो तब सात क्षेत्र में धनव्यय आदि के बड़े-बड़े मनोरथ करने चाहिए। कहा भी है- "बुद्धिमान पुरुष को हमेशा बड़े ही मनोरथ करने चाहिए, क्योंकि भाग्य भी मनोरथ के अनुरूप ही कार्यसिद्धि करने में यत्न करता है ।" "काम, अर्थ और यश के लिए किया गया प्रयत्न निष्फल हो सकता है, परन्तु धर्मकार्य सम्बन्धी किया गया संकल्प कभी निष्फल नहीं जाता है ।" व्यापार में उसके अनुरूप लाभ मिल जाय तो उन मनोरथों को सफल करना चाहिए। कहा भी है- " व्यवसाय का फल वैभव ( धनप्राप्ति ) है, वैभव का फल सुपात्र में विनियोग है । सुपात्र में विनियोग के अभाव में व्यवसाय व वैभव दोनों दुर्गंतिकारक हैं ।" - इस प्रकार करने से अपनी ऋद्धि धर्म -ऋद्धि होती है, अन्यथा वह पाप ऋद्धि कहलाती है ।
कहा भी है- "ऋद्धि के तीन प्रकार हैं- धर्म - ऋद्धि, भोग ऋद्धि और पाप ऋद्धि । जो ऋद्धि