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श्रावक जीवन-दर्शन/१३५ गुरु की आज्ञा में रहकर जो शिष्य ध्यान आदि से युक्त है और सदा अनारम्भी है, उसकी भिक्षा सर्वसम्पत्करी कहलाती है। प्रव्रज्या को स्वीकार करके प्रव्रज्या के ही विरुद्ध वर्तन करता है और असत् प्रारम्भ (सावधक्रिया) करता है उसकी अथवा प्रव्रज्या के विरुद्ध वर्तन करने वाले साधु की तथा असत् प्रारम्भ करने वाले गृहस्थ की भिक्षा पौरुषघ्नी (पुरुषार्थ का हनन करने वाली) कही गयी है।
___ शरीर से पुष्ट और मूढ़ साधु दीनता से भिक्षा द्वारा उदरपूर्ति करके धर्म की ही लघुता करता है और अपने ही पुरुषार्थ का हनन करता है ।
_ निर्धन, अन्ध, पंगु और अन्य कार्य करने में असमर्थ व्यक्ति अपनी आजीविका के निर्वाह के लिए भिक्षा मांगते हैं, यह वृत्ति भिक्षा कहलाती है।
निर्धन और अन्ध आदि के लिए यह वृत्तिभिक्षा अत्यन्त दुष्ट नहीं है क्योंकि अनुकम्पा में निमित्तभूत होने से इस वृत्तिभिक्षा से धर्म की लघुता नहीं होती है। गृहस्थ को इस भिक्षावृत्ति का त्याग करना चाहिए और विशेषकर धर्मात्मा को तो अवश्य छोड़नी चाहिए।
. भिक्षा मांगने वाला व्यक्ति (गृहस्थ) चाहे जितना धर्म करे तो भी दुर्जन की मैत्री की तरह अवज्ञा, निन्दा आदि दोषों का कारण है। धर्म-निन्दा में निमित्त बनने से बोधि-दुर्लभता आदि दोष भी उत्पन्न होते हैं।
प्रोपनियुक्ति में साधु को लक्ष्य कर कहा है-"षट काय में दया करने वाला भी संयत दुगुछित कुल से गोचरी ग्रहण करने से तथा आहार, निहार में अविधि के कारण धर्म की निन्दा में निमित्त बनता हो तो वह बोधिदुर्लभ बनता है।"
भिक्षावृत्ति से कोई समृद्ध या सुखी नहीं बन सकता। कहा भी है-“लक्ष्मी का मुख्य वास व्यापार में है, थोड़ी बहुत खेती में और नहींवत् सेवा में रहती है परन्तु भिक्षा में तो कभी नहीं रहती है।" भिक्षा से तो सिर्फ उदरप्रति हो सकती है, इस कारण इसे आजीविका के रूप में गिना गया है।
मनुस्मृति के चौथे अध्याय में तो इस प्रकार कहा है-"ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और सत्यानृत उपाय से अपनी आजीविका चलाये, परन्तु श्वानवृत्ति समान सेवा का तो सदा त्याग ही करना
चाहिए।"
साधु की गोचरी ऋत कहलाती है। बिना याचना से प्राप्त अमृत कहलाता है, याचना से प्राप्त मृत कहलाता है। खेती से प्राप्त प्रमृत और व्यापार से प्राप्त सत्यानृत कहलाता है । वणिक् के लिए अर्थार्जन का श्रेष्ठ व मुख्य उपाय व्यापार ही कहा गया है। कहा भी है
"लक्ष्मी न तो विष्णु के वक्षस्थल में रहती है और न ही कमलाकर में। लक्ष्मी का शुभस्थान तो पुरुष का व्यवसाय रूपी सागर ही है।" व्यापार भी अपने सहायक, धन, बल, भाग्योदय, देश, काल आदि के अनुरूप ही करना चाहिए, अन्यथा अचानक हानि आदि हो सकती है। ग्रन्थकार ने लिखा है
"बुद्धिमान् पुरुष को अपनी शक्ति के अनुसार ही कार्य करना चाहिए । स्व-शक्ति का विचार