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श्रावक जीवन-दर्शन/१३७
(2) क्षेत्रशुद्धि-जिस क्षेत्र में स्वचक्र, परचक्र, रोग तथा व्यसन आदि का उपद्रव न हो और धर्म की सर्वसामग्री हो, उसी क्षेत्र में व्यापार करना चाहिए; अन्य क्षेत्र में अधिक लाभ हो तो भी व्यापार नहीं करना चाहिए।
(3) कालशुद्धि-प्रतिवर्ष तीन अठाइयों तथा पर्वतिथियों में व्यापार का त्याग करे तथा आगे कहे जाने वाले वर्षा ऋतु आदि में जो व्यापार निषिद्ध हो, उसका भी त्याग करे।
(4) भावशुद्धि-भाव से व्यापार के अनेक भेद हैं। क्षत्रिय, व्यापारी तथा राजा आदि के साथ की गयी लेन-देन लाभकारी नहीं होती है। क्योंकि अपने हाथों से दिया गया धन भी जिनसे मांगने में भय रहता हो, उनके साथ थोड़ा भी व्यवहार लाभ के लिए कैसे हो सकता है ? कहा भी है-"ब्राह्मण व्यापारी और शस्त्रधारियों के साथ धन के इच्छुक वणिक् को कभी व्यवहार (लेन-देन) नहीं करना चाहिए।" "विरोधियों के साथ व्यापार उधार नहीं करना चाहिए।" संग्रह की वस्तु को अवसर पाने पर बेचने पर मूल कीमत तो मिलती ही है, परन्तु वैर-विरोध करने वाले को तो उधार देना उचित नहीं है ।
‘नट, विट (वेश्या के दलाल), वेश्या तथा जुमारी को तो कभी उधार नहीं देना चाहिए क्योंकि उससे मूलधन का ही नाश हो जाता है ।
ब्याज का व्यवसाय भी, जितनी रकम देनी हो, उससे अधिक कीमत की वस्तु गिरवी रखकर ही करना उचित है; अन्यथा रकम मांगने पर अत्यन्त क्लेश और विरोध पैदा हो सकता है। कभी धर्महानि और बंधन आदि अनेकविध आपत्तियाँ भी आ सकती हैं।
प्रमुग्ध सेठ का इष्टान्त ॥ जिनदत्त सेठ के मुग्ध नाम का पुत्र था। वह नाम के अनुसार मुग्ध/भोला ही था। पिता की अपार सम्पत्ति के कारण वह लहेर करता था। पिता ने दस पीढ़ी से शुद्ध खानदान में उत्पन्न हुई नन्दिवर्धन श्रेष्ठी की कन्या के साथ अपने पुत्र का बड़े महोत्सव पूर्वक लग्न कराया।
अन्तिम समय में पिता ने अपने पुत्र की उसी स्थिति को देख गूढार्थ वचनों के द्वारा इस प्रकार उपदेश दिया
(1) वत्स! सब तरफ दाँतों के द्वारा बाड़ बनाना । (2) किसी को ब्याज पर रकम देने के बाद पुनः न मांगना । (3) बंधन में रही पत्नी को ताड़ना करना। • (4) मधुर ही भोजन करना। (5) सुखपूर्वक ही सोना। (6) गाँव-गांव में घर बनाना। (7) आपत्ति के समय में गंगातट खोदना। (8) इनके अर्थ में सन्देह होने पर पाटलिपुत्र में मेरे मित्र सेठ सोमदत्त को पूछना।