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श्राद्धविधि / १२६
"अपने मस्तक की चोटी यमराज के हाथों में है, ऐसा मानकर अप्रमत्त भाव से धर्म में उद्यत रहना चाहिए । विद्या और अर्थ की प्राप्ति के समय "मैं अजर हूँ, भ्रमर हूँ" समझकर प्रयत्नशील बने रहना चाहिए ।"
"अतिशय रस से भरे हुए पूर्व श्रुत का ज्यों-ज्यों अध्ययन करते हैं, त्यों-त्यों मुनि नवीन श्रद्धा और संवेग से प्रानन्दित बनते जाते हैं ।"
"जो अभिनव श्रुत को पढ़ता है वह आगामी भवों में तीर्थंकर पद प्राप्त करता है । जो दूसरों को सम्यग् श्रुत पढ़ाता है, उसकी तो क्या बात करें ?"
बहुत ही अल्प बुद्धि
होने पर भी पाठ (अध्ययन) में उद्यमशील माषतुष प्रादि मुनियों को उसी भव में केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । अतः निरन्तर नये-नये अभ्यास में प्रयत्नशील बनना चाहिए ।
* द्रव्य-उपार्जन *
जिनपूजा के कर्त्तव्य - पालन के बाद ही श्रावक द्रव्य उपार्जन का प्रयत्न करे ।
यदि स्वयं राजा या मंत्री हो तो राजसभा में श्रौर वणिक आदि हो तो बाजार या दुकान में जाकर अपने-अपने योग्य स्थान में रहकर धर्म से अविरुद्ध प्राचरण द्वारा अर्थार्जन करे ।
दरिद्र और धनवान, मान्य और अमान्य, उत्तम और श्रधम में किसी भी प्रकार का भेद किये बिना मध्यस्थ दृष्टि से न्याय करना, यह राजा के लिए धर्म-अविरुद्ध वर्तन है ।
* न्याय पर यशोवर्म का दृष्टान्त
''कल्याणकटकपुर में न्यायनिष्ठ यशोवर्म नाम का राजा राज्य करता था । उसने अपने राजभवन के द्वार पर न्याय- घण्ट बँधवाया था ।
एक बार राज्य की अधिष्ठात्री देवी ने राजा की परीक्षा करने का निर्णय लिया । तत्काल 'देवी ने गाय का रूप धारण किया और ताजे जन्मे बछड़े के साथ क्रीड़ा करती हुई वह राजमार्ग में खड़ी रही। इसी बीच राजपुत्र तेज रफ्तार से दौड़ती हुई घोड़ागाड़ी में बैठकर उस राजमार्ग से निकला । अत्यन्त वेग के कारण उसकी गाड़ी का चक्र नवजात बछड़े के पैरों पर चलने से तत्काल उस बछड़ो की मृत्यु हो गयी ।
बछड़े की मृत्यु देखकर वह गाय जोर से चिल्लाने लगी और रोने लगी। उसी समय . किसी ने उसे कहा, "तुम राजद्वार पर जाकर न्याय की याचना करो ।”
यह सुनकर वह गाय राजद्वार पर चली गयी, उसने अपने सींगों से घण्टा बजा दिया । राजा उस समय भोजन कर रहा था, घण्टे के शब्द सुनकर वह बोला- "अरे ! यह घण्टा कौन बजा : रहा है ?".
सेवकों ने देखकर कहा—“कोई नहीं है स्वामिन् ! आप भोजन करें।"