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श्रावक जीवन-दर्शन / १२५ साधु भगवन्तों को उतरने के लिए वसति ( उपाश्रय) आदि का दान करना चाहिए । कहा भी है
"स्वयं अधिक समृद्ध न हो तो थोड़े में से थोड़ी भी वसति, शय्या, आसन, भोजन, पान, औषधि, वस्त्र तथा पात्र प्रादि का दान करना चाहिए ।"
" तप-नियम के योग से युक्त मुनियों को जो उपाश्रय प्रदान करता है, उसने वस्त्र, अन्न, पान, शयन श्रौर श्रासन आदि सब कुछ दे दिया है, क्योंकि उपाश्रय मिलने पर ही श्राहार, स्वाध्याय शयन आदि होते हैं ।
साधु को वसतिदान करने से जयन्ती श्राविका, वंकचूल, अवन्ति सुकुमाल, कोशा आदि संसार सागर से तर गये ।
श्रावक अपनी सर्वशक्ति
दुश्मनों का प्रतिकार करता है । कहा भी है
साधु की निन्दा आदि करने में तत्पर ऐसे जिनप्रवचन के
"शक्ति हो तो (प्रभु) प्राज्ञाभंजकों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, बल्कि मीठे वचन अथवा कटु वचन आदि से भी उन्हें सीख देनी चाहिए ।"
जिस प्रकार अभय कुमार ने द्रमक मुनि के निन्दकों को अपनी बुद्धि से रोका था, उसी प्रकार जिन - शासन के निन्दकों को रोकना चाहिए ।
साधु भगवन्त की तरह साध्वी भगवन्त को भी सुखसाता आदि पूछनी चाहिए। इसमें विशेष इतना है कि दुःशील और नास्तिकों से साध्वी का रक्षरण अवश्य करना चाहिए। अपने घर के समीप अत्यन्त सुरक्षित (गुप्त) स्थान में उन्हें वसति प्रदान करनी चाहिए ।
अपनी स्त्री आदि द्वारा साध्वीजी की सेवा वैयावच्च करानी चाहिए। अपनी पुत्री आदि को उनके पास रखना चाहिए और यदि वह दीक्षा के लिए तैयार हो तो उसे साध्वी भगवन्त को सौंप देनी चाहिए ।
विस्मृत हुए कर्त्तव्य उन्हें पुनः याद करायें । अनुचित प्रवृत्ति से उन्हें बचायें । एक बार अनुचित प्रवृत्ति करे तो समझायें और पुनः गलत प्रवृत्ति करे तो कठोर शब्दों से ताड़ना तर्जना करें इसके साथ ही उचित वस्तु से उनकी सेवा-भक्ति भी करें ।
गुरु
15 शास्त्र अध्ययन 5
के
पास नवीन शास्त्र अध्ययन करना चाहिए। कहा भी है
" ( प्रातः) अंजन के क्षय और वल्मीक की वृद्धि को देखकर दान देना चाहिए और नवीन अभ्यास करके दिन को सफल करना चाहिए ।"
"अपनी पत्नी, भोजन और धन में (सदा ) सन्तोष रखना चाहिए, परन्तु दान, अध्ययन और तप में कभी सन्तोष नहीं करना चाहिए ।"