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श्रावक जीवन-दर्शन/११७
जिनमन्दिर आदि में गुरु का आगमन हो तो उसी समय खड़े होकर उनका आदर-सत्कार करना चाहिए। कहा भी है
"गुरु के दिखाई देने पर खड़े हो जाना चाहिए । वे सामने आ रहे हों तो उनके सम्मुख जाना चाहिये । दो हाथ जोड़कर प्रणाम करना चाहिए। उन्हें आसन प्रदान करना चाहिए। आसन पर गुरु जब तक नहीं बैठें तब तक स्वयं अपने आसन पर नहीं बैठना चाहिए। भक्तिपूर्वक गुरु की वन्दना करनी चाहिए। गुरु की सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिए और गुरु के जाने पर कुछ दूरी तक उन्हें पहुँचाने जाना चाहिए। इस प्रकार संक्षेप में गुरु का आदर-सत्कार जानना चाहिए।
अविनय होने से गुरु के दोनों और तथा पीठ पीछे भी नहीं बैठना चाहिए। गुरु की जंघा का स्पर्श करते हुए भी नहीं बैठना चाहिए।
___ श्रावक को गुरु-सन्मुख *पलाठी लगाकर दोनों हाथों के बीच में दोनों घुटनों को लेकर तथा पर लम्बे करके भी नहीं बैठना चाहिए। अन्यत्र कहा है-गुरु के पास पलाठी लगाना, दीवार के सहारे बैठना, पैर लम्बे करना, विकथा करना, अति हास्य करना-इत्यादि क्रियाओं का त्याग करना चाहिए।
5 उपदेश श्रवण विधि 5 निद्रा और विकथा को छोड़कर मन, वचन और काया की गुप्ति का पालन करते हुए हाथ जोड़कर उपयोग सहित भक्ति और बहुमानपूर्वक गुरु का उपदेश सुनना चाहिए।
गुरु की आशातनाओं से बचने के लिए सिद्धान्तोक्त विधि के अनुसार साढ़े तीन हाथ का अवग्रह छोड़कर उस अवग्रह क्षेत्र के बाहर जीव-जन्तु रहित भूमि पर बैठकर धर्मदेशना का श्रवण करना चाहिए।
* उपदेश श्रवण से लाभ * कहा भी है-"सद्गुरु के मुख रूप मलयाचल पर्वत से उत्पन्न चन्दनरस समान गुरु-वचन की। प्राप्ति धन्य पुरुषों को ही होती है। वह गुरुवचन विपरीत पाचरण से उत्पन्न ताप का नाश करने वाला है।"
धर्म-देशना-श्रवण से• अज्ञान और मिथ्याज्ञान का नाश होता है । • सम्यक् तत्त्वों का बोध होता है। • संशयों का निवारण होता है। • धर्म में दृढ़ता पाती है। • व्यसन आदि उन्मार्ग से निवृत्ति होती है। • सन्मार्ग के विषय में प्रवृत्ति होती है।
. वीरासन (परिभाषा हेतु 40 पाशातना में से नं. 13 देखें)
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