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श्राद्धविषि/१०
रखे और स्वयं समृद्ध न हो तो स्वयं अपने शरीर से तथा अपने कुटुम्ब मादि से जिनमन्दिर सम्बन्धी कार्य करावे। जिसका जहाँ सामर्थ्य हो उसको वहाँ विशेष यत्न करना चाहिए।
यदि मामूली कार्य हो तो दूसरी बार निसीहि कहने के पूर्व वह कार्य कर देना चाहिए और वह कार्य यदि अधिक हो तो मन्दिर में सेवाभक्ति करने के बाद भी अपनी सुविधा के अनुसार करना चाहिए।
___इसी प्रकार धर्मशाला तथा गुरु और ज्ञान आदि के विषय में भी अपनी शक्ति के अनुसार यत्न करना चाहिए।
देव-गुरु आदि सम्बन्धी कार्यों की चिन्ता श्रावक को छोड़कर अन्य कौन करेगा? अतः ब्राह्मणों की साधारण गाय की तरह उनके कार्यों में उपेक्षा अथवा अनादर नहीं करना चाहिए । देव-गुरु सम्बन्धी कार्यों में अनादर या उपेक्षा करने वाली आत्मा में सम्यक्त्व का भी सन्देह हो जाता है।
जिनमन्दिर की आशातनाओं आदि को देखकर भी जिसका मन दुःखी न हो, उसको अरिहन्त पर भक्ति है, ऐसा कैसे कह सकते हैं ? लोक में भी एक दृष्टान्त है। महादेव की मूर्ति की एक आँख किसी ने निकाल दी। इसे देखकर एक भील को अत्यन्त ही दुःख हुआ और उसने उसी समय अपनी आंख निकालकर दे दी।
अतः स्वजन के कृत्य से भी अधिक सम्मान देकर जिनमन्दिर सम्बन्धी कार्य अत्यन्त हो आदरपूर्वक करना चाहिए। ग्रन्थकार ने कहा भी है
"शरीर, द्रव्य और कुटुम्ब पर साधारणतया सभी प्राणियों को प्रीति होती है परन्तु मोक्षाभिलाषी व्यक्ति को तो श्री जिनेश्वर, जिनशासन और चतुर्विध-संघ पर ही अत्यन्त प्रीति होती है।"
ॐ विविध प्राशातनाएं 5 सम्यग्ज्ञान, देव तथा गुरु की जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार की आशातनाएँ कही गई हैंज्ञान की प्राशातना
(अ) जघन्य प्राशातना-पुस्तक, पाटी, नोटबुक, जापमाला आदि को मुह का थूक लगने से, अक्षरों का हीनाधिक उच्चारण करने से, ज्ञान के उपकरण पास में होते हुए, अधोवायु करने से ज्ञान की जघन्य प्राशातना होती है।
(मा) मध्यम पाशातना-अकाल समय में पढ़ने से, उपधानतप बिना सूत्रों का अध्ययन करने से, भ्रान्ति से अशुद्ध अर्थ की कल्पना करने से, पुस्तक आदि को प्रमाद से पैर लगाने से, पुस्तक को भूमि पर गिराने से, ज्ञान के उपकरणों को पास में रखकर आहार तथा लघुनीति करने से ज्ञान की मध्यम आशातना होती है।
(इ) उत्कृष्ट पाशातना-पट्टी पर लिखे हुए अक्षरों को थूक से मिटाने से, ज्ञान के उपकरण पर बैठने से, सोने से, ज्ञान के उपकरण साथ में रखकर बड़ी नीति करने से, ज्ञान तथा