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श्राद्धविधि / १०६
इस भव में भी बारह करोड़ सोना मोहर खोनी पड़ी। बारह बार प्रयत्न करने पर भी धन का लाभ नहीं हुआ, बल्कि दासत्व, दरिद्रत्व आदि दुःख उठाने पड़े ।
कर्मसार ने ज्ञानद्रव्य का उपयोग किया था, उस कारण उसे प्रज्ञाहीनता आदि दुःख भी उत्पन्न हुए ।
इस प्रकार अपने पूर्वभव को सुनकर उन दोनों ने श्राद्धधर्म के स्वीकारपूर्वक अपने पापों की आलोचना की । प्रायश्चित्त के रूप में बारह द्रम्म की हजार- गुरणी रकम अर्थात् बारह हजार द्रम्म ज्ञान और साधारण द्रव्य में देने का अभिग्रह किया ।
उसके बाद पूर्व कर्म का क्षय हो जाने से और धनप्राप्ति होने से एक हजार गुणी रकम उन्होंने ज्ञान व साधारण द्रव्य में अर्पित कर दी। क्रमशः वे बारह करोड़ स्वर्णमुद्राओं के अधिपति बने । अन्त में श्रावकधर्म का सुन्दर रूप से पालन करते हुए एवं ज्ञान-साधारणं द्रव्य की रक्षा व वृद्धि करते हुए श्राद्धधर्म की श्राराधना कर दीक्षा स्वीकार कर सिद्ध बने ।
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देवद्रव्य की तरह ज्ञानद्रव्य श्रावकों के लिए कल्प्य नहीं है । साधारणद्रव्य भी संघ ने दिया हो तो ही कल्प्य है अन्यथा नहीं । संघ भी सात क्षेत्रों में ही उसका उपयोग करे पर भिखारी वगैरह को न दे क्योंकि वे सात क्षेत्रों के अन्तर्गत नहीं हैं । याचकों को तो अनुकम्पा द्रव्य और गाय, बैल वगैरह पशुओं के चारा-पानी आदि के लिए जीवदया का द्रव्य खर्च किया जाता है ।
वर्तमान व्यवहार से गुरु के न्यू छन आदि से इकट्ठा किया गया साधारणद्रव्य श्रावक, श्राविका को देना योग्य नहीं है परन्तु श्रावक धर्मशाला (पौषधशाला) आदि में उस न्युं छन की रकम का उपयोग कर सकते हैं ।
ज्ञानद्रव्य में साधु-साध्वी को दिये गये कागज पत्र आदि का उपयोग श्रावक अपने निजी कार्य के लिए नहीं कर सकते हैं ।
अधिक नकरा दिये बिना अपनी पुस्तक आदि पर भी वह कागज नहीं लगाना चाहिए । रुद्रव्य होने से साधु की मुहपत्ती आदि का उपयोग भी श्रावक के लिए कल्प्य ( उचित ) नहीं है ।
स्थापनाचार्य और जपमाला आदि तो श्रावकों को देने के लिए गुरु ने बहोरी हो तो उसको ग्रहण करने में श्रावक को कोई दोष नहीं है । गुरु की आज्ञा बिना लेखक (अच्छे अक्षरों में नकल लिखने वाले) के पास लिखाना तथा वस्त्र - दोरी आदि को बहोरना भी साधु के लिए कल्प्य नहीं है ।
देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य और साधारणद्रव्य की थोड़ी भी रकम अपने निजी कार्य में उपयोग में लेने से उसका बुरा परिणाम बहुत अधिक भुगतना पड़ता है, इसे जानकर विवेकी व्यक्ति को देवद्रव्य आदि के उपभोग का सर्वथा त्याग करना चाहिए ।
उपधान तथा संघमाला, पहरामणी तथा न्युं छन आदि की रकम बोलने के बाद तुरन्त भरपाई कर देनी चाहिए। यदि तुरन्त शक्य न हो तो शीघ्र देने का प्रयत्न करना चाहिए । शीघ्र देने में अधिक लाभ है और देर करने से, किसी दुर्भाग्यवश मृत्यु अथवा सर्वधन का नाश हो जाय तो श्रावक आदि को भी नरकादि दुर्गंति में जाना पड़ सकता है।