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श्रावक जीवन-दर्शन / ८६
पूर्वभव में की गयी सहस्रदल कमल की पूजा से उसने इस प्रकार की समृद्धि प्राप्त की, फिर वह विधिपूर्वक त्रिकाल पूजा करने 'अत्यन्त ही तत्पर ( अप्ररणी ) था ।
'अपने उपकारी का पोषरण अवश्य करना चाहिए - इस नियम के अनुसार उसने नवीन चैत्य, प्रतिमा निर्माण तथा महोत्सव आदि के द्वारा जिनभक्ति का अत्यधिक पोषण किया ।
'जैसा राजा होता है, वैसी ही प्रजा होती है' के नियम के अनुसार अठारह वर्ग के लोगों ने जैनधर्म को प्रायः स्वीकार किया। जैनधर्म से ही इसलोक और परलोक में अभ्युदय होता है ।
समय आने पर अपने पुत्र को राज्य सौंपकर धर्मदत्त ने अपनी रानी आदि के साथ दीक्षा स्वीकार की और एकाग्रतापूर्वक अरिहन्त की भक्ति से उसने तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित किया और यहाँ दो लाख पूर्व के प्रायुष्य को भोगकर सहस्रार देवलोक में देव बना । जिनभक्ति के प्रभाव से चार रानियों (साध्वियों) ने गणधर नामकर्म उपार्जित किया और वे देवलोक में देव हुईं ।
देवलोक से च्यवकर धर्मदत्त की आत्मा महाविदेह क्षेत्र में तीर्थंकर बनी और चार रानियों की आत्माएँ उनकी गरणधर बनीं और वे एक साथ मोक्ष गये ।
अहो ! धर्मदत्त का उन चारों रानियों के साथ का योग कैसा आश्चर्यकारी है !
इस प्रकार जिनभक्ति से उत्पन्न वैभव को जानकर धर्मदत्त राजा की तरह जिनभक्ति तथा अन्य शुभकार्य में हमेशा तत्पर रहना चाहिए ।
5 जिनमन्दिर की उचित चिन्ता फ्र
जिनमन्दिर उचित चिन्ता करनी चाहिए अर्थात् चैत्य की सफाई करनी चाहिए । जिनमन्दिर के जीर्ण भागों की तथा पूजा के उपकरण आदि की मरम्मत करनी चाहिए । प्रतिमा तथा प्रभु के परिकर आदि को साफ रखना चाहिए। प्रभु की विशिष्ट पूजा तथा दीपमालानों से शोभा आदि करनी चाहिए। जिनमन्दिर की आगे बतायी जाने वाली आशातनानों से बचना चाहिए ।
मन्दिर सम्बन्धी अक्षत नैवेद्य श्रादि की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। चन्दन, केशर, धूप, दीप तथा तेल आदि का संग्रह करना चाहिए; जिसका दृष्टान्त आगे कहेंगे- ऐसे देवद्रव्य का रक्षण करना चाहिए। देवद्रव्य की रकम की उगाही करके तीन-चार श्रावकों को जतांना चाहिए। जिनमन्दिर सम्बन्धी द्रव्य को सुयोग्य स्थान में जमा रखना चाहिए ।
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जिनमन्दिर सम्बन्धी श्राय-व्यय का स्पष्ट हिसाब रखना चाहिए । स्वयं अर्पण करके व दूसरे के द्वारा द्रव्य अर्पण करवा के देवद्रव्य की आय में वृद्धि करनी चाहिए। यह कार्य योग्य पुरुषों को सौंपना चाहिए ।
जिनमन्दिर सम्बन्धी कार्य के लिए योग्य पुरुषों को रखना चाहिए और समय-समय पर उसकी जाँच करनी चाहिए। यह सब जिनमन्दिर सम्बन्धी उचित चिन्ता कहलाती है । इसमें निरन्तर यत्न करना चाहिए ।
जो समृद्ध श्रावक है वह अपने खर्च एवं अपने नौकर से काम लेकर देवद्रव्य की सार-संभाल