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श्राद्धविधि / ९६
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5 गुरु की तैंतीस प्राशातनाएं 5
गुरु के आगे चलने से आशातना होती है। मार्ग बतलाने आदि श्रावश्यक कार्य के बिना गुरु के आगे चलने से अविनय दोष होता है ।
गुरु के एकदम पास - साथ में चलना ।
गुरु के बिल्कुल पीछे चलना । बिल्कुल पीछे चलने पर कभी खांसी- छींक आने पर अपना थूक - श्लेष्म आदि गुरु पर गिरने से आशातना होती है ।
गुरु के आगे बैठना ।
गुरु के एकदम पास में बैठना ।
गुरु के एकदम पीछे बैठना ।
गुरु के आगे खड़ा रहना ।
गुरु के एकदम पास में खड़ा रहना ।
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गुरु के एकदम पीछे खड़ा रहना ।
आहार- पानी, आदि करते समय गुरु के पहले प्राचमत करना ।
गुरु के पहले गमनागमन की आलोचना करना ।
रात्र में 'कोई जागता है ?' इस प्रकार पूछने पर स्वयं जागते हुए भी जवाब नहीं देना । गुरु के कहने से पहले बोल देना ।
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आहार- पानी की आलोचना दूसरे साधुयों के पास करके फिर गुरु के पास करना । आहार- पानी सर्वप्रथम अन्य साधुत्रों को बताकर फिर गुरु को बताना ।
अन्य साधुओं को निमन्त्रण देने के बाद फिर गुरु को श्राहार- पानी हेतु निमन्त्रण देना ।
गुरु को पूछे बिना स्निग्ध व मधुर आहार दूसरे साधुनों को देना ।
गुरु को सादा भोजन देने के बाद स्वयं स्निग्ध आदि आहार भरपेट ग्रहण करना ।
गुरु के वचनों को सुना - अनसुना कर जवाब न देना ।
गुरु को कर्कश व ऊँचे स्वर से जवाब देना ।
गुरु के बुलाने पर भी अपने आसन पर बैठे-बैठे ही जवाब देना ।
गुरु के बुलाने पर 'क्या कहते हो ?' - इस प्रकार अनादरपूर्वक बोलना ।
'आप' या 'पूज्य' ऐसे बहुमान वाचक शब्द न कहते हुए 'तू' या 'तुम' ऐसे प्रोछे शब्द कहना । गुरु के कुछ कहने पर पुनः गुरु को ही सामने कहना । जैसे गुरु ने कहा - ' ग्लान आदि की वैयावच्च क्यों नहीं करते हो ?” – तो सामने से जवाब देना - " आप ही क्यों नहीं करते हो ?”
गुरु के प्रवचन को सुनकर खुश न होकर नाराज होना ।
गुरु सूत्र का अर्थ कहते हों तब 'आपको यह अर्थं याद नहीं है ? यह अर्थ यों नहीं है।' इस प्रकार बीच में बोलना ।
गुरु कथा ( व्याख्यान) कह रहे हों तब बीच में ही उन्हें रोककर स्वयं कथा करने लग जाना । गुरु की पर्षदा को तोड़ देना जैसे – “अब गोचरी का समय हुआ है" - कहकर श्रोताओं को उठा देना ।