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श्रावक जीवन-दर्शन/९५ (75) मन्दिर में धूल वाले पर को (76) मन्दिर में मैथुन-सेवन करना।
झाड़ना। . (77) मन्दिर में मस्तक पर से जू प्रादि (78) मन्दिर में भोजन करना।
निकालकर फेंकना या देखना । (79) शरीर के गुह्य भाग को खुला (80) मन्दिर में वद्य-चिकित्सा करना।
करना अथवा दृष्टियुद्ध, बाहुयुद्ध
आदि करना। (81) मन्दिर में क्रय-विक्रय करना। (82) मन्दिर में शयन करना । (83) मन्दिर में पानी पीना, दूसरों (84) मन्दिर में स्नानगृह बनाना ।
के पीने हेतु वहाँ पानी रखना, अथवा वर्षाकाल में मन्दिर से गिरते पानी को अपने लिए ग्रहण
करना। ये उत्कृष्ट से चौरासी भाशातनाएँ हैं। बृहदभाष्य में तो पाँच ही पाशानताएँ कही गई है(1) मन्दिर में अवज्ञा करना। (2) पूजादि में अनादर करना (3) भोग करना (4) दुष्ट प्रणिधान करना। (5) अनुचित प्रवृत्ति करना।
(1) अवज्ञा पाशातना-मन्दिर में पलाठी लगाकर बैठना, प्रभु को पीठ करना, सीटी बजाना, पैर फैलाना, प्रभु के सामने दुष्ट प्रासन से बैठना ।
. (2) अनावर पाशातना-जैसे-तैसे वेष से प्रभु-पूजा करना। शक्ति होने पर भी तुच्छ सामग्री से बेवक्त पूजा करना। शून्य चित्त से पूजा करना।
(3) भोग माशातना- मन्दिर में पान-सुपारी खाना आदि । मन्दिर में ताम्बूल खाने से ज्ञानादि के आय का नाश होता है।
(4) दुष्ट प्रणिधान-राग, द्वेष तथा मोह से दूषित मनोवृत्ति के साथ प्रभु-पूजा करना।
(5) अनुचित प्रवृत्ति-देनदार को पकड़ना, संग्राम करना, रुदन करना, विकथा करना, जानवर बाँधना, भोजन पकाना आदि गृह कार्य करना, गाली देना, वैद्य-चिकित्सा करना, व्यापार करना आदि।
इन आशातनाओं का अवश्य त्याग करना चाहिए, क्योंकि अविरत सम्यग्दृष्टि देवता भी मन्दिर में इन माशातनामों का त्याग करते हैं।
कहा भी है:-"विषय विष से मोहित देवता भी पाशातना के भय से अप्सरामों के साथ हास्य-क्रीड़ा प्रादि नहीं करते हैं।"