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श्रावक जीवन-दर्शन/४१ जलचर प्राणी जल में ही उत्पन्न होते हैं और मरते हैं, परन्तु मन की मलिनता दूर नहीं होने के कारण वे मरकर स्वर्ग में नहीं जाते हैं। .
गंगा-स्नान बिना भी शम-दम आदि से चित्त की शुद्धि होती है, सत्य वचन से मुख की शुद्धि होती है और ब्रह्मचर्यपालन से काया की शुद्धि होती है। जिसका चित्त राग आदि से कलुषित है, असत्य बोलने से मुख मलिन है और जीवहिंसा से काया मलिन है ऐसे से गंगा पराङ्मुख रहती है यानी गंगा भी उसे पवित्र नहीं करती। गंगा भी कहती है-"परस्त्री, परद्रव्य और परद्रोह से रहित व्यक्ति कब पाकर के मुझे पावन करेगा।" , कुलपुत्र का दृष्टान्त
कोई कुलपुत्र गंगा-स्नान के लिए जा रहा था, तब उसकी माता ने कहा-"बेटा ! जहाँ तू स्नान करे वहाँ मेरे इस तू बड़े को भी स्नान करा देना।" इस प्रकार कहकर माँ ने वह तुंबड़ा बेटे को सौंप दिया।
बेटा गंगातट पर पहुंचा। वहाँ उसने स्नान किया। उसके साथ उस तू बड़े को भी नहला दिया।
कुछ दिनों के बाद वह कुलपुत्र अपने घर लौटा। माँ ने उसी तू बड़े का साग बनाया और अपने बेटे को परोसा।
बेटे ने ज्यों ही वह साग मुह में डाला तुरन्त ही थुत्कार करने लगा और बोला, "माँ ! साग बहुत कड़ वा है।"
मां ने कहा-"बेटा ! सैकड़ों बार गंगास्नान से भी इसकी कटुता दूर न हुई तो उन स्नानों से तेरे पाप कैसे दूर होंगे? पाप का नाश तो तप आदि से होगा।"
माँ की यह बात सुनकर कुलपुत्र को प्रतिबोध हुआ और वह श्रद्धापूर्वक तप आदि करने लगा।
स्नान करने से जल के असंख्य जीवों की तथा शैवाल आदि के अनन्त जीवों की विराधना होती है। बिना छने पानी से स्नान करने पर जल के आश्रित पोरे आदि त्रस जीवों की विराधना होती है, अतः जलस्नान दोषरूप ही है। 'जल स्वयं जीवमय है'-इस बात को लोक भी स्वीकार . करते हैं।
उत्तरमीमांसा में कहा है-"मकड़ी के मुख से निकलती लार के जैसे महीन वस्त्र से छने हुए पानी के एक बिन्दु में जितने जीव हैं, उन सब सूक्ष्म-प्राणियों का शरीर भ्रमर प्रमाण हो जाय तो वे त्रिभुवन में भी नहीं समाते हैं।" भाव-स्नान का स्वरूप
ध्यान रूपी जल से, जीव के कर्म रूपी मल की शुद्धि का जो कारण बनता है, उसे भावस्नान कहते हैं।
स्नान करने के बाद भी यदि घाव में से पीप आदि निकलता हो तो उसे अपने चन्दन-पुष्प