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श्राद्धविधि / ५८
बृहद् कल्प में कहा है- "तीर्थंकर साधु के सर्धार्मिक नहीं है, इसलिए तीर्थंकर के लिए बनाया गया आहार साधु को कल्पता है । जो प्रतिमा के लिए बनाया गया है उसकी तो बात ही क्या ? क्योंकि प्रतिमा तो अजीव है। यानी प्रतिमा हेतु किया हुआ आहार साधु को कल्पता ही है ।"
प्रतिष्ठाप्राभृत में से उद्धृत श्री पादलिप्तसूरि विरचित प्रतिष्ठापद्धति में भागमानुसार कहा है - "आरती और मंगल दीप करने के बाद चार स्त्रियों को मिलकर विधिपूर्वक नैवेद्य करना चाहिए ।"
महानिशीथ के तीसरे प्रध्ययन में कहा है- "अरिहन्त परमात्मा का गन्ध, माला, दीप, मोरपीछी से प्रमार्जन, चन्दनादि से विलेपन, विविध प्रकार के नैवेद्य, वस्त्र, धूप आदि से पूजासत्कार करके प्रतिदिन पूजा करने के द्वारा तीर्थ की उन्नति करते हैं ।"
[ इस प्रकार अग्रपूजा का अधिकार समाप्त हुआ । ]
* भावपूजा *
जिनेश्वर भगवन्त की द्रव्यपूजा के निषेध रूप तीसरी निसीहि कहकर भावपूजा करनी चाहिए | भावपूजा के समय पुरुष प्रभु के दाहिनी ओर तथा स्त्रियाँ प्रभु के बायीं ओर खड़ी रहें।
आशातना - निवारण के लिए जघन्य से नौ हाथ श्रौर उत्कृष्ट से साठ हाथ का अवग्रह रखना चाहिए । गृहचैत्य में जधन्य अवग्रह एक या डेढ़ हाथ का रखना चाहिए। उत्कृष्ट से साठ हाथ अवग्रह के बाहर रहने से चैत्यवन्दन विशिष्ट स्तुति श्रादि से हो सकता है। कहा भी है-चैत्यवन्दन के उचित क्षेत्र में रहकर यथाशक्ति स्तुति, स्तोत्र व स्तवन आदि के द्वारा प्रभु का देववन्दन करना चाहिए। यह तीसरी भावपूजा कहलाती है ।
निशीथ में कहा है- "वह गंधार श्रावक स्तुति स्तोत्र करता हुआ गिरिगुफा में एक दिनरात रहा । "
वसुदेवहडी में कहा है- "सम्यक्त्वधारक वसुदेव ने प्रातः काल में श्रावकोचित सामायिक, पच्चक्खाण, कायोत्सर्ग, स्तुति तथा वन्दन किया था ।"
इस प्रकार अनेक स्थलों में "श्रावकों के द्वारा कायोत्सर्ग-स्तुति के द्वारा चैत्यवन्दन किया गया है" - ऐसा उल्लेख है ।
चैत्यवन्दन के भेद
जघन्य आदि के भेद से चैत्यवन्दन के तीन भेद हैं । भाष्य में कहा है
नक्कारेण जहन्ना । चिइवंदणमज्झदंडथुइजुनला । पणदंडथुइचउक्कथयपरिहारोहि
उक्कोसा ॥ १ ॥
श्रयं - (१) जघन्य चैत्यवन्दन - ( १ ) हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर 'नमो जिणाणं' कहना । अथवा (२) 'नमो अरिहंताणं - इस प्रकार पूरा नवकार कहना । अथवा एक या बहुत श्लोकों