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श्रावक जीवन-दर्शन / ६५
• स्नात्र पूजा करते समय चामर, संगीत और वाद्य यंत्र का आडम्बर अपनी सर्व शक्ति से करना चाहिए ।
सभी अभिषेक कर चुकने के बाद शुद्ध जल से धारा देनी चाहिए ।
उसका यह पाठ है—“ध्यान रूपी तलवार की धारा के समान प्रभु के अभिषेक की यह जलधारा भव रूपी भवन की दीवारों को भेद डाले ।"
उसके बाद अंगलूछन कर विलेपन, आभूषण आदि से पूर्व से भी सुन्दर प्रभु
चाहिए ।
की पूजा
करनी
सभी प्रकार के धान्य, पक्वान्न, शाक, विगई और फल आदि नैवेद्य (बलि) चढ़ाने चाहिए। उसके साथ ही ज्ञानादि रत्नत्रयी से समृद्ध तीन लोक के अधिपति प्रभु के श्रागे ( अक्षत से ) तीन पुञ्ज करने चाहिए । स्नात्र अभिषेक में छोटे-बड़े के व्यवहार की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए अर्थात् प्रथम वृद्ध श्रावक अभिषेक करें, उसके बाद छोटे और उसके बाद श्राविकाएँ करें ।
प्रभु के जन्माभिषेक के समय भी सर्वप्रथम अच्युतेन्द्र अपने परिवार के साथ श्रभिषेक करता है, उसके बाद यथाक्रम से अन्य इन्द्र प्रभु का अभिषेक करते हैं ।
स्नात्र अभिषेक के बाद शेषा की तरह उसे मस्तक पर लगाने में किसी दोष की सम्भावना
नहीं है ।
श्री वीरचरित्र में श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य जी ने कहा है- "सुर, असुर, नर और नागकुमार प्रभु अभिषेक जल को वन्दन करते थे और अपने सभी अंगों पर लगाते थे ।"
श्री राम के चरित्र में उनतीसवें उद्देश में दशरथ महाराजा द्वारा प्रायोजित प्राषाढ़ शुक्ला अष्टमी से आरम्भ हुए अष्टाह्निक चैत्य स्नात्र के महा अधिकार में कहा है- "राजा ने तरुण स्त्रियों के साथ अपनी स्त्रियों के लिए वह स्नात्र जल भेजा और उन्होंने वह अभिषेक जल ले जाकर के रानियों के मस्तक पर डाला ।
"कंचुकी के द्वारा भेजे गये स्नात्रजल के पहुँचाने में देरी होने के कारण महाराजा की पटरानी शोकाकुल और कोपातुर बन गयी ।
.....उसके बाद उस कंचुकी द्वारा वह क्रुद्ध महारानी शान्तिजल से अभिषिक्त की गई । तब मन की आग शान्त होने पर वह मन में प्रसन्न हुई । "
प्रतिवासुदेव जरासन्ध ने श्रीकृष्ण के सैन्य पर 'जरा' सैन्य मुसीबत में आ गया । कृष्ण ने नेमिनाथ प्रभु की सूचना से घरणेन्द्र के पास से श्री पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा प्राप्त की । गयी और उसके स्नात्रजल के छिड़काव से श्रीकृष्ण का समस्त सैन्य स्वस्थ बना ।
बृहद् शान्तिस्तव में भी पाठ है - "शान्तिपानीयं मस्तके दातव्यं" अर्थात् शान्तिजल मस्तक पर लगाना चाहिए ।
छोड़ी थी जिससे कृष्ण का समस्त अट्टम तप की आराधना की और शंखेश्वर नगर में वह प्रतिमा लाई