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श्रावक जीवन-दर्शन/६९ श्रावक सामायिक पार कर फूल गूंथने आदि का कार्य करे। क्योंकि धन के अभाव के कारण वह स्वयं तो फूल आदि खरीद कर प्रभु-भक्ति नहीं कर सकता है, अतः इस प्रकार सहयोग देकर भी वह प्रभु-भक्ति का लाभ उठा सकता है।
प्रश्न—क्या सामायिक का त्याग करके द्रव्य-स्तव करना उचित है ?
उत्तर-सामायिक तो स्वाधीन है, वह किसी भी समय हो सकती है, परन्तु जिनमन्दिरसम्बन्धी कार्य तो समुदाय के आधीन है और कभी-कभी ही उसका अवसर हाथ लगता है, अतः अवसर हाथ लगने पर उस कार्य को करने से विशेष पुण्य-लाभ होता है। भागम में भी कहा है
“जीवों को बोधिलाभ की प्राप्ति होती है। सम्यग्दृष्टि जीवों को विशेष आनन्द प्राता है। प्रभु-आज्ञा का पालन होता है, जिनेश्वर की भक्ति का लाभ मिलता है और तीर्थ की उन्नति होती है।" इस प्रकार अनेक लाभ होने के कारण निर्धन-श्रावक के लिए सामायिक को छोड़कर भी प्रभु-भक्ति में सहयोग करना विशेष लाभकारी है ।
विनकृत्यसूत्र में कहा है-"यह सब विधि ऋद्धिमन्त श्रावक के लिए कही गयी है। निर्धन श्रावक तो घर में सामायिक करके, यदि कोई मार्ग में लेनदार न हो और किसी से विवाद न हो तो सुसाधु की तरह यतनापूर्वक जिनमन्दिर जाये और जिनमन्दिर में यदि कोई कायिक कार्य हो तो सामायिक को पार कर भी वह कार्य करे।"
यहाँ मूल गाथा में 'विधि' पद का उल्लेख होने से दश त्रिक, पाँच अभिगम आदि चौबीस मूल द्वार और २०७४ प्रतिद्वार रूप भाष्य में कही गयी विधि का पालन करना चाहिए।
___ * द्वार-प्रतिद्वार : १० त्रिक * (१) तीन बार निसीहि करना। (२) तीन बार प्रदक्षिणा देना । (३) तीन प्रकार के प्रणाम (नमस्कार) करना। (४) अंग, अग्र व भाव स्वरूप तीन प्रकार की पूजा करनी। (५) प्रभु की तीन अवस्थाओं का चिन्तन करना। . (६) तीन दिशाओं का त्याग कर मन को प्रभु पर.स्थापित करना ।
(७) तीन बार भूमि-प्रमार्जन करना । . (८) वर्णादि तीन का आलम्बन लेना।
(९) तीन प्रकार की मुद्राएँ करना। (१०) तीन प्रकार का प्रणिधान करना, इत्यादि ।
अनुष्ठान में विध की प्रधानता है। विधिपूर्वक किया गया देव-पूजन, गुरुवन्दन आदि धर्मानुष्ठान महाफलदायी होता है। प्रविधिपूर्वक किये गये अनुष्ठान अल्पफल देने वाले होते हैं और त्रुटिपूर्ण होने से कभी-कभी इनसे हानि भी हो सकती है। कहा भी है