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श्राद्धविधि / ८०
चमत्कृत बनी प्रीतिमती पुत्र की प्राशा से प्रसन्नमुखी बनी । प्रापत्ति आने पर धर्म, गुरु आदि की आस्था दृढ़ बनती है
इसके बाद प्रीतिमती ने सद्गुरु के पास श्रावक धर्म स्वीकार किया । त्रिकाल जिनपूजा करने वाली और सम्यक्त्व को धारण करने वाली प्रीतिमती रानी अनुक्रम से सुलसा श्राविका जैसी बनी । अहो ! हंस की वाणी का कितना चमत्कार !
एक बार राजा के दिल में चिन्ता उत्पन्न हुई कि अभी तक मुख्यरानी ( पट्टरानी) को पुत्र पैदा नहीं हुआ है और अन्य रानियों के तो सैकड़ों पुत्र हैं तो फिर राज्य के योग्य कौन ?
राजा इस प्रकार की चिन्ता में ही था कि रात्रि में उसे स्वप्न में मानों साक्षात् किसी दिव्य पुरुष ने आकर कहा, “हे राजन् ! अपने राज्य के योग्य पुत्र की तु व्यर्थ की चिन्ता मत कर । विश्व कल्पवृक्ष समान जैनधर्म का विधिपूर्वक सेवन कर, जिससे इसलोक और परलोक में तुझे सिद्धि होगी ।"
इस स्वप्न को देखकर वह राजा प्रसन्नतापूर्वक जिनपूजा आदि के द्वारा जिनधर्म की आराधना करने लगा । सचमुच, इस प्रकार के स्वप्न को देखकर कौन व्यक्ति आलस करेगा !
इसके बाद पट्टरानी ने स्वप्न में अरिहन्त की प्रतिमा के दर्शन किये तत्पश्चात किसी प्रीति को देने वाले किसो उत्तम जीव का सरोवर में हंस की तरह प्रीतिमती की कुक्षि में अवतरण हुमा ।
गर्भ के प्रभाव से उसे मणिमय जिनमन्दिर और जिनप्रतिमा के निर्माण एवं उसकी पूजा आदि के दोहद होने लगे । सचमुच, फल के अनुरूप ही वृक्ष पर फूल आते हैं ।
देवताओं को विचार मात्र से ही कार्यसिद्धि हो जाती है । राजाओं को वचन मात्र से कार्यसिद्धि हो जाती है । धनी लोगों को धन से कार्यसिद्धि हो जाती है और शेष लोगों को शारीरिक श्रम से ही कार्यसिद्धि होती है ।
प्रीतिमती के दोहदों की पूर्ति कठिन होने पर भी राजा ने उसके सभी दोहद प्रसन्नतापूर्वक विशेष प्रकार से पूर्ण किये ।
पर्वत पर पारिजात कल्पवृक्ष की तरह प्रीतिमती रानी ने एक शुभ दिन पुत्ररत्न को जन्म
दिया ।
राजा के हर्ष का पार न रहा। उसने भी उसका अपूर्वं जन्मोत्सव किया और उस पुत्र का 'धर्मदत्त' इस प्रकार सार्थक नाम रखा ।
एक बार मानन्द और उत्सवपूर्वक उस पुत्र को जिनमन्दिर ले जाया गया और बड़े उत्सवपूर्वक अरिहन्त परमात्मा की प्रतिमा को नमस्कार कराकर उसे भेंट की तरह रखा। इसी बीच खुश होकर प्रीतिमती रानी अपनी सखी को कहने लगी । " हे सखि ! उस चतुर हंस ने मुझ पर आश्चर्यकारी उपकार किया है। उस हंस के वचनानुसार श्राराधना करने से निर्धन को निधि की तरह मुझे जिनधर्मं रूप रत्न और इस प्रकार का सुन्दर पुत्ररत्न प्राप्त हुआ है ।"