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श्रावक जीवन-दर्शन/७३ "इस जिनपूजा रूप बीज से भवसंसार में दुःखरहित श्रेष्ठ भोगसामग्री प्राप्त कर सभी जीव सिद्धि को प्राप्त करते हैं।"
__ पूजा करने से मन शान्त होता है। मन की शान्ति से उत्तम ध्यान होता है, शुभ ध्यान से आत्मा का मोक्ष होता है और मोक्ष में अव्याबाध सुख की प्राप्ति होती है।
पुष्प आदि से पूजा, तीर्थंकर की आज्ञा का पालन, देवद्रव्य का रक्षण, उत्सव और तीर्थयात्रा रूप पाँच प्रकार से जिनेश्वर की भक्ति होती है ।
* द्रव्यस्तव के भेद * द्रव्यस्तव के दो भेद हैं-(१) प्राभोग द्रव्यस्तव और (२) अनाभोग द्रव्यस्तव ।
कहा भी है-"वीतराग के गुणों को जानकर . उन गुणों के अनुरूप उत्तम विधि एवं आदरपूर्वक जो जिनपूजा की जाती है, उसे प्राभोग द्रव्यस्तव कहते हैं।"
'इस प्राभोग द्रव्यस्तव से चारित्र का लाभ होता है जो समस्त कर्मों का नाश करने वाला है, अतः सम्यग्दृष्टि आत्मा को इसमें अच्छी तरह से उद्यम करना चाहिए।'
'जो पूजा की विधि को अच्छी तरह से जानता नहीं है, जो जिनेश्वर के गुणों को नहीं जानता है और शुभ परिणाम से रहित है, उसकी पूजा 'मनाभोग द्रव्यस्तव' कहलाती है।'
अनाभोग द्रव्यस्तव पूजा भी गुणस्थानक का स्थान होने से गुणकारी ही है, क्योंकि इससे क्रमशः शुभ-शुभतर परिणाम होने से आत्मविशुद्धि होती है और बोधि का लाभ होता है। .
वीतराग के गुणों को नहीं जानने पर भी अशुभकर्म के अत्यन्त क्षय के कारण जिनका भविष्य उज्ज्वल है, ऐसे जीवों को जिनबिम्ब आदि उचित वस्तु में प्रीति उत्पन्न होती है-जैसे पोपट-युगल को अरिहन्त के बिम्ब पर प्रीति उत्पन्न हुई थी।
जिस प्रकार मृत्यु के निकट रहे हुए पुरुष को पथ्य भोजन पर भी अप्रीति/द्वेष उत्पन्न होता है, उसी प्रकार अत्यन्त पापकर्म वाले भवाभिनन्दी जीवों को जिनबिम्ब, जिनपूजा आदि उचित वस्तु पर भी द्वेष ही होता है।
इसी कारण तत्त्वज्ञ पुरुष जिन-बिम्ब और जिनेश्वर के धर्म के विषय में अनादिकालीन अशुभ अभ्यास से डरते हुए तनिक भी द्वेष नहीं करते हैं। दूसरों के द्वारा बनाये गये जिममन्दिर, जिनमूर्ति प्रादि पर ईर्ष्या करने वाली कुन्तला रानी का उदाहरण
पृथ्वीपुर नगर में जितशत्रु राजा की कुन्तला नाम की मुख्य रानी थी। अरिहन्त के धर्म में वह अत्यन्त निष्ठा वाली थी। वह दूसरों को भी धर्म में प्रेरणा करती थी। उसकी प्रेरणा को प्राप्त कर राजा की शोक्य रानियाँ भी धर्म में तत्पर बनीं। सभी रानियाँ कुन्तला पर बहुमान भाव रखती थीं।