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प्राविधि/७२
'खेती, व्यापार, सेवा प्रादि तथा भोजन, शयन, आसन, गमन, वचन वगैरह भी योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि से ही पूर्ण फलदायी बनते हैं, अन्यथा अल्प फलदायी बनते हैं।'
* प्रविधि से अल्प लाभ * सुना जाता है कि धन के अर्थी दो पुरुष देशान्तर गये और उन्होंने किसी सिद्धपुरुष की बहुत उपासना की। सिद्धपुरुष ने खुश होकर प्रभावशाली तुंबड़े के बीज दिये और उसका आम्नाय भी बतला दिया।
"सौ बार हल से खेड़ी गयी भूमि में छायामण्डप करके अमुक नक्षत्र, वार तथा योग में उन बीजों को बो देना। लता तैयार होने पर कुछ बीजों को लेकर पत्र, पुष्प तथा फल सहित उस बेल को वहाँ जला देना। तत्पश्चात् बत्तीस तोले तांबे को गलाकर उसमें आधा तोला भस्म डालने से वह सब तांबा शुद्ध सोना बन जायेगा।"
सिद्धपुरुष ने उन दोनों को समान शिक्षा दी। वे दोनों अपने घर आ गये। घर आने पर एक ने सम्पूर्ण विधि का पालन किया, जिससे वह सब तांबा शुद्ध सोना हो गया, दूसरे ने विधि में कुछ कमी रखी, अतः सोने के बदले चांदी बनी
अतः सर्वत्र सम्यग् प्रकार से विधि का पालन करना चाहिए।
पूजा प्रादि समस्त शुभ क्रियाओं के अन्त में 'प्रविधि-आशातना-मिच्छा मि दुक्कडम्' अवश्य कहना चाहिए।
* अंग प्रादि पूजा का फल 8 • अंगपूजा विघ्नोपशामिनी है, अर्थात् अंगपूजा से विघ्न उपशान्त हो जाते हैं।
अग्रपूजा अभ्युदय प्रसाधनी है अर्थात् अग्रपूजा से अभ्युदय (विकास) होता है। भावपूजा निर्वृत्तिकारिणी है, अर्थात् भावपूजा से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
ये तीनों पूजाएँ यथार्थ नाम वाली हैं। यहाँ पूर्वोक्त अंगपूजा, अग्रपूजा, मन्दिर बनाना, मूर्ति भरवाना, तीर्थ-यात्रा आदि करना-करवाना, ये सब द्रव्यस्तव हैं ।
इस सन्दर्भ में कहा है
"सूत्रोक्त विधि के अनुसार जिनमन्दिर, जिनबिम्ब, प्रतिष्ठा, यात्रा तथा पूजा आदि भावस्तव के कारण होने से द्रव्यस्तव समझने चाहिए।"
"यदि हमेशा सम्पूर्ण पूजा शक्य न हो तो उस दिन अक्षत-दीपक आदि करके भी प्रभु की पूजा अवश्य करनी चाहिए।"
जल की एक बूद भी अगर महासमुद्र में गिर जाती है तो वह अक्षय बन जाती है, इसी प्रकार वीतराग की पूजा के उपयोग में आयी हुई थोड़ी भी लक्ष्मी अक्षय बन जाती है।