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श्रावक जीवन-दर्शन/७७
क्योंकि तीर्थंकर अनंत गुण वाले होते हैं। संसार के सभी पुष्पों को इकट्ठा करके एक-एक गुण के हिसाब से पुष्प से पूजा करें तो भी पुष्प समाप्ति होने पर भी गुणों का अन्त नहीं पायेगा।"
__ "माप आँखों से नहीं देखे जाते हैं तथा नाना प्रकार की पूजामों से आपकी प्राराधना नहीं होती है, परन्तु बहुत भक्तिराग एवं आपकी प्राज्ञा के पालन से आपकी पाराधना होती है।" .
हार्दिक बहुमान और सम्यग्विधि के पालन से ही देवपूजा सम्पूर्ण फल को देने वाली होती है। उसकी चतुभंगी शुद्ध एवं अशुद्ध चांदी व छाप के दृष्टान्त से इस प्रकार है
(१) शुद्ध चांदी व सच्ची छाप (२) शुद्ध चांदी किन्तु खोटी छाप (३) सच्ची छाप किन्तु अशुद्ध चांदी
(४) खोटी चांदी व खोटी छाप _ इसी प्रकार प्रभुपूजा में चार भंग इस प्रकार हैं- .
(१) सम्यग् बहुमान और विधि का सम्यग् पालन । (२) सम्यग् बहुमान किन्तु विधि का पालन नहीं। (३) सम्यग् बहुमान का प्रभाव किन्तु विधि का सम्यग् पालन । (४) बहुमान और विधि-दोनों का प्रभाव ।
बृहद् भाष्य में कहा है-"प्रभु की वन्दनक्रिया में चित्त का बहुभाग चांदी के समान और सम्पूर्ण बाह्यक्रिया छाप के समान समझनी चाहिए।"
बहुमान और क्रिया दोनों के समायोग में वन्दन सच्चे रुपये की तरह समझना चाहिए। . भक्तियुक्त (बहुमान युक्त) प्रमादी की क्रिया दूसरे भंग के समान समझनी चाहिए। किसी वस्तु के लाभ के निमित्त बहुमान रहित अखण्ड क्रिया तीसरे भंग के समान है। बहुमान और क्रिया से रहित वंदन क्रिया चौथे भंग के समान तात्त्विक दृष्टि से अवंदन ही है । देश, काल के अनुसार विधि एवं बहुमानपूर्वक कम या अधिक भक्ति करनी चाहिए।
* अनुष्ठान के भेद * . जिनमत में चार प्रकार के अनुष्ठान बतलाये गये हैं-(१) प्रीति अनुष्ठान (२) भक्ति अनुष्ठान (३) वचन अनुष्ठान और (४) प्रसंग अनुष्ठान ।
बाल मादि को रत्न पर प्रीति उत्पन्न होती है, उसी प्रकार सरल स्वभाव वाले जीव को जिस अनुष्ठान को करते हुए प्रीति रस बढ़ता है, उसे प्रीति अनुष्ठान कहते हैं ।
शुद्ध विवेक वाले भव्य जीव द्वारा बहुमानविशेष से पहले की तरह ही पूज्यों के प्रति प्रीति से जो क्रिया की जाती है उसे भक्ति भनुष्ठान कहते हैं।