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श्राद्धविषि/७४
एक बार राजा सभी रानियों के लिए अलग-अलग स्वतन्त्र मन्दिर बनवाने लगा। तब कुन्तला रानी बहुत ईर्ष्या के कारण अपने मन्दिर, प्रतिमा, परमात्मा की महापूजा तथा नाटक आदि एक से बढ़कर एक कराने लगी तथा अन्य रानियों के मन्दिर, प्रतिमा, पूजा को देखकर मन में अत्यन्त ईर्ष्या करने लगी।
ओहो ! ईर्ष्या/मत्सर का त्याग कितना कठिन है। ग्रन्थकार ने कहा है
"ईर्ष्या रूपी महासागर में जहाज भी डूब जाते हैं तो वहां पत्थर जैसे दूसरे लोग डूब जाय इसमें क्या प्राश्चर्य है ?"
विद्या, व्यापार, विज्ञान, ऋद्धि-समृद्धि, जाति, ख्याति तथा उन्नति आदि में तो ईर्ष्या देखी जाती है, परन्तु आश्चर्य है कि धर्म के क्षेत्र में भी ईर्ष्या घुस गई है ?
दूसरी रानियाँ तो सरल स्वभाव के कारण हमेशा .कुन्तला रानी की अनुमोदना ही करती हैं।
दुर्भाग्य से ईर्ष्याग्रस्त कुन्तला रानी को अनेक असाध्य रोग उत्पन्न हुए। राजा ने उसके सभी प्राभूषण आदि ले लिये। भयंकर रोग से पीड़ित एवं शोक्य रानियों के मन्दिर एवं प्रतिमा पर द्वेष रखने वाली वह कुन्तला मरकर वहीं पर कुतिया के रूप में पैदा हुई ।
पूर्वजन्म के संस्कारों के कारण वह अपने ही मन्दिर के द्वार पर बैठती। एक बार किसी केवली भगवन्त का वहाँ आगमन हुआ। अन्य रानियों ने प्रभु को पूछा-"कुन्तलादेवी मरकर कहाँ उत्पन्न हुई ?" तब केवली भगवन्त ने कहा-“कुन्तला ईर्ष्या से मरकर यह कुतिया बनी है।"
केवली भगवन्त के मुख से यह बात सुनकर सभी रानियों को प्रत्यन्त वैराग्य भाव पैदा हुआ।
वे उस कुतिया को भोजन खिलाने लगी और कहने लगीं, हे पुण्यवन्ता! धर्मिष्ठ होकर भी तुमने व्यर्थ ही द्वेषभाव क्यों किया?....जिससे इस कुतिया की पर्याय में पैदा हुई। इस प्रकार बार-बार सुनने से एवं मन्दिर के दर्शन से उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। धर्मबोधप्राप्त उस कुतिया ने सिद्धादि के समक्ष अपने पापों की आलोचना की और अन्त में अनशन स्वीकार कर वैमानिक देवलोक में देवी बनी। • इस दृष्टान्त को जानकर धर्मी आत्मा को द्वेष का त्याग करना चाहिए ।
* भाव स्तव * जिनेश्वर भगवन्त की आज्ञा का पालन करना, परमात्मा की भावपूजा/भावस्तव है । जिनाज्ञा दो प्रकार की है-(१) स्वीकार रूप और (२) परिहार (त्याग) रूप ।