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श्राद्धविधि/६० जब तक मध्याह में देव को वंदन न हो तब तक भोजन नहीं करना चाहिए। अपराट (मंध्या
करना चाहिए। अपराह्न (संध्या) में जब तक चैत्यवन्दन न किया हो तब तक रात्रि में सोना नहीं चाहिए।"
अन्यत्र भी कहा है-प्रातःकाल में विधिपूर्वक चैत्य और गुरुवंदन न किया हो तब तक श्रमणोपासक को जल-पान भी उचित नहीं है।
___ मध्याह्न में भी पुनः वन्दन करने के बाद ही भोजन करना उचित है और संध्या समय भी वन्दन के बाद ही शयन उचित है।
गीत, नृत्य आदि का समावेश अग्रपूजा में किया गया है, फिर भी उनका समावेश भावपूजा में भी हो सकता है।
___ गीत-नृत्य आदि महाफलदायी होने से उदयन राजा की प्रभावती रानी की तरह यदि शक्य हो तो स्वयं को ही करना चाहिए।
निशोथरिण में कहा है-"स्नान के बाद कौतुक (दृष्टिदोषादि से रक्षा के लिए किया जाता काजल का तिलक, रक्षाबन्धनादि प्रयोग) मंगल करके श्वेत वस्त्र पहिन कर "प्रभावती रानी अष्टमी और चतुर्दशी के दिन भक्तिराग से स्वयं ही प्रभु के समक्ष नृत्य करती थी और राजा भी रानी के नाच के अनुकूल मृदंग बजाता था।"
अवस्था चिन्तन-जिनपूजा करते समय अरिहन्त परमात्मा की छमस्थ, केवली और सिद्ध अवस्था का चिन्तन करना चाहिए।
'भाष्य में कहा है-"प्रभु को प्रक्षाल कराने वाले एवं पूजा करने वाले देवों को देखकर छद्मस्थ अवस्था, प्रातिहार्यों के द्वारा केवली अवस्था एवं पर्यकासन/कायोत्सर्ग के द्वारा प्रभु की सिद्धावस्था का चिन्तन करना चाहिए।"
प्रभु के परिकर के ऊपर रहे हुए स्नान कराने वाले गजारूढ़ कलशधारी देवों के द्वारा तथा पूजा करने वाले मालाधारी देवों के द्वारा प्रभु की छद्मस्थावस्था का चिन्तन करना चाहिए।
छद्मस्थ अवस्था के तीन भेद हैं-(१) जन्मावस्था (२) राज्यावस्था और ३ श्रमणावस्था ।
प्रभु को स्नान कराने वाले देवों को देखकर जन्मावस्था का, मालाधारी देवताओं को देखकर राज्यावस्था का तथा केशरहित मस्तक व मुखदर्शन द्वारा प्रभु की श्रमणावस्था का चिन्तन करना चाहिए।
परिकर के ऊपर कलश के दोनों ओर रहे पत्रों (पत्तों) को देखकर अशोकवृक्ष, माला धारण करने वाले देवों को देखकर पुष्पवृष्टि, प्रतिमा के दोनों ओर वीणा व बंसीधारी को देखकर दिव्यध्वनि प्रातिहार्य का चिन्तन करना चाहिए-शेष प्रातिहार्य तो स्पष्ट ही दिखाई देते हैं।
[भावपूजा का अधिकार समाप्त हुआ।]