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श्राद्धविषि / ५०
तीन बार प्रणाम करना चाहिए । फिर हर्षोल्लासपूर्वक मुखकोश बांधकर प्रभु प्रतिमा पर रहे गत दिन के निर्माल्य को उतारना चाहिए और मयूरपिच्छिका से प्रमार्जन करना चाहिए । अनन्तर जिनमन्दिर की प्रमार्जना ( सफाई ) स्वयं करनी चाहिए अथवा दूसरे के पास करानी चाहिए । उसके बाद विधिपूर्वक जिनबिम्ब की पूजा करनी चाहिए ।
अपने मुख के तथा नाक के श्वास- निःश्वास से प्रभु श्राशातना रोकने के लिए आठ पुट वाला मुखकोश करना चाहिए ।
वर्षा ऋतु में निर्माल्य में कुन्थु आदि जीवों की उत्पत्ति हो सकती है, इस कारण निर्माल्य और स्नात्रजल को अलग-अलग पवित्र व निर्जीव स्थान में डालना चाहिए, ऐसा करने से श्राशातना भी नहीं होगी ।
गृह
में पूजा करनी हो तो सर्वप्रथम ऊँचे स्थान पर भोजनादि में जिसका उपयोग नहीं किया जाता हो ऐसे पवित्र पात्र में परमात्मा को स्थापित कर, दोनों हाथों से पवित्र जल से भरे हुए कलश आदि से परमात्मा का अभिषेक करना चाहिए। अभिषेक करते समय इस प्रकार विचार करना चाहिए - "हे स्वामिन् ! बाल्यवय में मेरुपर्वत के ऊपर देवताओं ने स्वर्ण के कलशों से आपका अभिषेक किया, जिन्होंने वह अभिषेक देखा, वे धन्य हैं ।"
उसके बाद आवश्यकता हो तो सावधानीपूर्वक वालाकूची से प्रभु केसर को दूर कर ( शुद्ध जल से ) पुनः प्रक्षालन करके बाद में दो ( तीन ) देह पर रहे जल को साफ कर चरणांगुष्ठ के क्रम से प्रभु के नौ अंगों करनी चाहिए ।
की देह पर रहे चन्दनअंगलू छन से प्रभु की की चन्दनादि से पूजा
कुछ प्राचार्यों का कथन है कि प्रथम भाल पर तिलक करके फिर प्रभु की नवांगीपूजा करनी चाहिए । श्री जिनप्रभसूरि कृत पूजाविधि में तो इस प्रकार कथन है- "सरस सुरभि चन्दन सर्वप्रथम प्रभु के दाहिने घुटने की, फिर दाहिने कन्धे की, उसके बाद भाल की, उसके बाद बाँ कन्धे की, उसके बाद बाँये घुटने की, उसके बाद हृदय की - इस प्रकार छह अंगों की सर्वांग पूजा करके ताजे और खिले हुए फूलों से एवं वासचूर्ण से प्रभु की पूजा करनी चाहिए ।"
यदि पहले किसी ने प्रभु की सुन्दर पूजा या अंगरचना की हो और स्वयं के पास पूजा या ांगी की बढ़िया सामग्री न हो तो उस पूर्व की पूजा या प्रांगी को नहीं उतारना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से भव्य जीवों को उस सुन्दर पूजा या प्रांगी के दर्शन से होने वाले पुण्यबन्ध में अन्तराय पैदा होता है । अतः पूर्व की पूजा या प्रांगी को न उतार कर उसी की शोभा में अभिवृद्धि करनी चाहिए। बृहद् भाष्य में कहा है
“यदि पूर्व में किसी ने अधिक धन खर्च कर प्रभु की पूजा की हो तो उसी की शोभा में भवृद्धि हो - इस प्रकार करना चाहिए ।"
गीतार्थ पुरुष भोग से विनष्ट द्रव्य को निर्माल्य कहते हैं । पूर्व की पूजा पर पुनः पूजा करने से निर्माल्य का दोष नहीं है ।
इसीलिए एक बार प्रभु पर चढ़ाये वस्त्र, ग्राभरण, कुण्डल की जोड़ प्रादि वापस प्रभु पर