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श्राद्धविधि / ५२
महासती दमयन्ती ने पूर्व भव में अष्टापद पर्वत पर रहे चौबीस जिनेश्वर भगवन्तों के रत्न के तिलक बनवाये थे ।
इन दृष्टान्तों को ध्यान में रखकर अपनी शक्ति के अनुसार परमात्मभक्ति में स्वद्रव्य का सद्व्यय करना चाहिए, जिससे दूसरों के भावों की भी अभिवृद्धि हो । कहा भी है- "उत्तम साधनों से प्रायः उत्तम भाव पैदा होता है । इससे बढ़कर लक्ष्मी का श्रेष्ठ उपयोग नहीं है ।"
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जिनमन्दिर में श्रेष्ठ वस्त्रों के चंदरवे श्रादि बाँधने चाहिए ।
ग्रथम ( गूंथे हुए ), वेष्टिम ( वेष्टन से बने हुए), पूरिम ( पिरोये हुए) तथा संघातिम (ढेर रूप) इन चार प्रकारों से बढ़िया ताजे तथा विधिपूर्वक लाये हुए कमल, जाई, केतकी, चम्पा आदि के फूलों की माला, मुकुट, कलगी, पुष्पगृह आदि की रचना करनी चाहिए ।
जिनेश्वर भगवन्त के हाथ में सोने का बीजोरा, नारियल, सुपारी और नागरवेल के पान, सोना मोहर, अँगूठी तथा मोदक आदि रखना चाहिए। बाद में धूप करना चाहिए। सुगन्धित - वासक्षेप करना चाहिए - यह सब अंगपूजा में गिना जाता है । वृहद्भाष्य में कहा है
पुष्प प्रादि से की जाने वाली पूजा
स्नान, विलेपन, आभरण, वस्त्र, फल, गन्ध, धूप तथा पूजा कहलाती है ।
अंगपूजा में यह विधि समझनी चाहिए - वस्त्र से नाक और मुँह बाँध करके अथवा समाधि हेतु वस्त्र से नाक और मुँह को ढक करके पूजा करनी चाहिए तथा शरीर को खुजलाना नहीं चाहिए । अन्यत्र भी कहा है- "परमात्मा की पूजा करते समय शरीर को खुजलाना नहीं चाहिए, बलगम थूकना नहीं चाहिए भौर स्तुति स्तोत्र आदि नहीं बोलना चाहिए ।"
प्रभुपूजा के समय मुख्यतया तो मौन ही रहना चाहिए। यदि मौन न रह सके तो पापकारी वचन का तो अवश्य त्याग करना चाहिए ।
जिनमन्दिर में ‘निसीहि' कहकर प्रवेश होने के कारण गृह-सम्बन्धी प्रवृत्ति का निषेध हो जाता है, अतः पापप्रवृत्ति करने का संकेत नहीं करना चाहिए - ऐसा करने से श्रौचित्य का भंग होता है ।
जिहाक का दृष्टान्त
धोका नगरवासी जिरगहाक की स्थिति अत्यन्त ही सामान्य थी । वह घी के साडे तथा कपास आदि के भार को वहन कर अपनी आजीविका चलाता था ।
एक बार जिरगहाक एकाग्रचित्त से भक्तामर स्तोत्र का पाठ कर रहा था । उसकी भक्ति को देखकर चक्रेश्वरी देवी प्रसन्न हो गयी । उस देवी ने उसे वशीकरण करने वाला रत्न प्रदान किया । रत्न के प्रभाव से उसने मार्ग में आ रहे तीन प्रसिद्ध चोरों को खत्म कर दिया। पाटण के भीमदेव राजा ने इस अद्भुत वृत्तांत को सुना । प्रसन्न होकर राजा ने उसे बहुमानपूर्वक बुलाकर देश की रक्षा के लिए तलवार प्रदान की । उस समय शत्रु के लिए शल्य समान सेनापति ईर्ष्या से बोला