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श्रावक जीवन-दर्शन/५३
"तलवार तो उसे देनी चाहिए जिसे तलवार चलाने का अभ्यास हो। जिणहाक को तो फकत, तराजू, वस्त्र और कपास देना चाहिए।"
उसी समय जिणहाक बोला, "तलवार, भाले और बझै धारण करने वाले तो बहुत से लोग हैं, परन्तु शत्रुओं के लिए शल्य रूप और युद्ध में शूरवीर पुरुष को जन्म देने वाली तो कोई विरल ही माता होती है।"
__ "अश्व, शस्त्र, शास्त्र, वाणी, वीणा, नर तथा नारी पुरुषविशेष को प्राप्त कर योग्य तथा अयोग्य बनते हैं। अर्थात् योग्य व्यक्ति के पास प्रश्व आदि लाभ का कारण बनता है और अयोग्य व्यक्ति के पास रहा अश्व आदि नुकसान का कारण बनता है।" इस प्रकार के जिणहाक के वचनों को सुनकर राजा ने उसे तलारक्षक (कोतवाल) बना दिया। जिणहाक ने अपने पराक्रम से गुजरात देश में से 'चोर' का नाम ही मिटा दिया।
एक बार सौराष्ट्र का चारण जिणहाक की परीक्षा के लिए पाटण माया। उसने उस गांव में से ऊँट की चोरी कर उसे अपनी झोंपड़ी के पास बाँध दिया। अन्त में कोतवाल के सैनिक ने उसे पकड लिया और उसे
उसे जिणहाक के पास ले आया। उस समय जिणहाक देवपूजा कर रहा होने से मुह से तो कुछ नहीं बोला, परन्तु फूल के बीट को तोड़कर संकेत कर दिया कि इसे खत्म कर दिया जाय।
उसी समय वह चारण बोला-"जिणहाक के हृदय में जिनवर नहीं आये हैं क्योंकि जिन हाथों से जिनवर की पूजा करता है उनसे वह हत्या कैसे कर सकता है ?"
चारण के इन शब्दों को सुनकर जिणहाक लज्जित हो गया और उसने 'पुनः चोरी मत करना' ऐसा कहकर उसके गुनाह को माफ किया। इसे सुनकर उस चारण ने कहा
इक्का चोरी सा किया, जा खोलडइ न मार।
बीजी चोरी किम करइ, चारण चोर न थाय ॥१॥ ऐसे वाक्य सुनकर के 'यह तो चारण है ऐसा जानकर उसको पूछा “तुमने क्या कहा ?"
वह बोला- "मैं चोर होता तो ऊँट की चोरी क्यों करता? अगर करता तो भी अपनी झोंपडी के पास क्यों बांधता? यह कार्य तो मैंने दान पाने के लिए किया है।"
यह सुनकर के जिणहाक ने खुश होकर उसे दान देकर विदा किया। . उसके बाद जिणहाक ने तीर्थयात्रा, मन्दिर-निर्माण, पुस्तकलेखन आदि पुण्य कार्य किये। सिर पर माल की गाँठ उठाकर माल बेचने वालों की चूंगी माफ की। वह अभी तक चल रही है।
द्वारबिम्ब व समवसरण बिम्ब की पूजा मूलनायक प्रभु की विस्तार से पूजा करने के बाद यथाशक्ति अन्य सब बिम्बों की भी पूजा करनी चाहिए।