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बादविधि/५४
द्वारबिम्ब और समवसरण बिम्ब की पूजा मुख्य बिम्ब की पूजा के बाद गर्भगृह से बाहर निकलते समय करना ही उचित है, न कि प्रवेश करते समय। क्योंकि सर्वप्रथम मूलबिम्ब की ही पूजा करना वाजिब है।
यदि निकटता की दृष्टि से द्वार-बिम्ब प्रादि का पूजन पहले किया जाय तो विशाल जिनमन्दिर में प्रवेश करते समय अनेक जिनबिम्ब निकट होने से मूलनायक के पहले उनकी पूजा करनी पड़ेगी। ऐसा करने से तो पुष्पादि की अल्पता होने पर मूल बिम्ब की पूजा ही रह जाएगी। शत्रुजय-गिरनार आदि तीर्थों पर तो प्रवेश के मार्ग में अनेक जिनबिम्ब होने से यदि पहले उनकी पूजा की जाय तो मुख्य मन्दिर में सबसे आखिर में पहुंचेंगे जो कि उचित नहीं है।
निकटता की दृष्टि से ही विचार करेंगे तब तो उपाश्रय में प्रवेश करने के बाद मुख्य गुरु के बजाय अन्य साधु ही निकट होने से उन्हीं को पहले वन्दन करना पड़ेगा, जो अनुचित होगा। हाँ ! निकट होने से प्रणाम/नमस्कार मात्र तो पहले भी कर सकते हैं।
तृतीय उपांग (जीवाभिगम) में कही गई पूजाविधि के अनुसार ही संघाचार में विजयदेव के वर्णन में भी द्वार तथा समवसरण बिम्ब की पूजा बाद में ही करने का विधान है। कहा है'उसके बाद सौधर्म सभा में जाकर जिनेश्वर भगवन्त की दाढों को प्रणाम कर पेटी को खोलकर मोरपीछी से उसकी प्रमार्जना करते हैं। उसके बाद सुगन्धित जल से इक्कीस बार प्रक्षालन कर गोशीर्ष चन्दन से लेपकर फूलों से पूजा करने के बाद, द्वार-बिम्बों की पूजा करते हैं" इसी प्रकार पांचों सभाओं में पूजा करते हैं, द्वारपूजा आदि की विशेष विधि तृतीय जीवाभिगम उपांग से जानें। अतः केसर, पुष्प आदि मूलनायक की सर्वपूजा सर्वप्रथम और विशेष पदार्थों से भक्तिपूर्वक करनी चाहिए। पूजा में औचित्य इस प्रकार कहा गया है
_ 'पूजा करते समय विशेष पूजा तो मूलनायक बिम्ब की ही करनी चाहिए, क्योंकि मन्दिर में प्रवेश करते समय सर्वप्रथम मूलनायक प्रभु पर ही सभी की दृष्टि पड़ती है और वहीं पर मन एकाग्र बनता है।"
प्रश्न-(शिष्य)
मूलनायक की सर्वप्रथम और दूसरे जिनबिम्बों की बाद में पूजा करने पर तो तीर्थंकरों में भी नायक-सेवक भाव हो जाएगा–प्रतः एक (मूलनायक) की विशेष पूजा-भक्ति करें और दूसरों की सामान्य पूजा करें-इसमें तो बुद्धिमान् पुरुषों को भयंकर पाशातना ही दिखाई देती है।"
उत्तर-(प्राचार्य) ___ सभी तीर्थंकरों का प्रातिहार्य प्रादि परिवार समान ही होने से बुद्धिमान् पुरुष को नायकसेवक बुद्धि उत्पन्न नहीं होती है ।
प्रतिष्ठा के समय मूलनायक की कल्पना की हुई होने से व्यवहार से सर्वप्रथम मूलनायक की पूजा की जाती है। इससे दूसरे तीर्थंकरों की नायकता चली नहीं जाती है।
औचित्य पालन करने वाला व्यक्ति एक परमात्मा को वन्दन, पूजन तथा नैवेद्य आदि चढ़ाये तो भी ज्ञानी महापुरुषों ने उसमें आशातना नहीं कही है।