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श्राद्धविधि / ४४
कुमारपाल राजा का दृष्टान्त
एक बार कुमारपाल महाराजा के मंत्री बाहड़ के छोटे भाई चाहड़ ने कुमारपाल राजा के पूजा के वस्त्र अपने उपयोग में ले लिये ।
राजा ने मंत्री को कहा – “मुझे नये वस्त्र दो ।" मंत्री ने कहा- “ नये रेशमी वस्त्र भी सपादलक्ष देश की बम्बेरा नगरी में ही बनते हैं । परन्तु वहाँ का राजा नये वस्त्रों को एक दिन पहनने के बाद ही यहाँ भेजता है ।"
बम्बेरा के राजा
बिना उपयोग में लिया वस्त्र मांगा,
तब राजा ने चाहड़ को बुलाकर कहा - " तू सैन्य सहित बम्बेरा नगरी जा और पटोला बनाने वाले कारीगरों को लेकर श्रा । तू दान देने में उदार है, परन्तु ज्यादा खर्च मत करना ।" इतना कहकर राजा ने सैन्य सहित मंत्री को भेजा ।
यह बात सुनकर कुमारपाल परन्तु उस राजा ने वस्त्र नहीं दिया ।
तीसरे प्रयाण में मंत्री ने कोषाध्यक्ष से एक लाख द्रव्य मांगा परन्तु राजा के आदेशानुसार उसने नहीं दिया अतः मंत्री ने उसे बाहर निकाल दिया ।
तत्पश्चात् भण्डार में से यथेच्छ द्रव्य का व्यय किया। बाद में जल्दी ही बम्बेरा पहुँचा । चौदह सौ सांडनियों पर दो-दो शस्त्रधारी सैनिकों के साथ रात्रि में बम्बेरा नगरी के चारों ओर घेरा डाला । परन्तु उसी रात्रि में सात सौ कन्याओं के विवाह का महोत्सव चालू होने से उनको विघ्न न हो इसलिए एक रात्रि विलम्ब कर प्रातः काल में उसी किले को अपने अधीन कर लिया। मंत्री ने वहाँ के खजाने में से सात करोड़ सोना मोहर और ग्यारह सौ घोड़े ले लिये। किले को तोपों से नष्ट कर दिया और उस देश में अपने स्वामी की प्रज्ञा प्रवर्ता कर सात सौ सालवियों को महोत्सवपूर्वक पाटण ले आये ।
राजा ने कहा,
"तुम्हारी उदारता ही एक बड़ा दोष है । परन्तु तुम्हारी यह उदारता ही बुरी नजर नहीं लगने में मन्त्र समान है । तुमने मुझसे भी अधिक धन खर्च कर दिया ?"
मंत्री ने कहा - "मेरे व्यय में तो मेरे स्वामी का पीठबल है । बल पर नहीं, आपकी शक्ति के बल पर धन खर्च किया है। आपके पास किसका बल है ?'
अर्थात् मैंने अपनी शक्ति के
यह बात सुनकर राजा बड़ा खुश हुआ और उसने सम्मान सहित उस मंत्री को 'राजघरट्ट' का विरुद प्रदान किया ।
द्रव्य शुद्धि
अच्छे स्थान में उत्पन्न, अच्छे चरित्रवान कुशल व्यक्ति के पास मंगाये हुए, पवित्र बर्तन में
* देखिये 'प्रबन्ध चिन्तामरिण' के राजघरट्टचाहड़प्रबन्ध में
" तव स्थूललक्ष्यतं महद्द षणं रक्षामन्त्रः, नो वा चक्षुर्दोषेणोद्र्ध्व एव विदीयंसे । यं व्ययं भवान् कुरुते तादृशं कर्तुं महमपि न प्रभूष्णुः ।"