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मानव जीवन का ध्येय
२५
—श्रय और प्रेय- ये दोनों ही मनुष्य के सामने आते हैं, परन्तु ज्ञानी पुरुष दोनों का भली भाँति विचार करके प्रेय की अपेक्षा श्रय को श्रेष्ठ समझ कर ग्रहण करता है, और इसके विपरीत मन्द बुद्धि वाला मनुष्य लौकिक योग-क्षेम के फेर में पड़ कर त्याग की अपेक्षा भोग को श्रच्छा समझता है - उसे अपना लेता है ।
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते,
कामr asta हृदि श्रिताः । अथ मर्त्योऽमृतो भवति,
ब्रह्म समश्नुते ।। "
-साधक के हृदय में रही हुई कामनाएँ जब सबकी सब समूल नष्ट हो जाती हैं, तत्र मरणधर्मा मनुष्य अमर हो जाता है, ब्रह्मत्व भाव को प्राप्त कर लेता है ।
एक हिन्दी कवि भी धर्म और सदाचार के महत्त्व पर, देखिए, कितनी सुन्दर बोली बोल रहा है :
"धन, धान्य गयो, कछु नाहिं गयो,
आरोग्य गयो, कछु खो दीन्हो । चारित्र गयो, सर्वस्व गयो,
जग जन्म अकारथ ही लीन्हो || "
भगवान् महावीर ने या दूसरे महापुरुषों ने मनुष्य की श्रेष्ठता के जो गीत गाए हैं, वे धर्मं चोर सदाचार के रंग में गहरे रंगे हुए मनुष्यों के ही गाए हैं। मनुष्य के से हाथ पैर पा लेने से कोई मनुष्य नहीं बन जाता । मनुष्य बनता है, मनुष्य की आत्मा पाने से । और वह श्रात्मा मिलती है, धर्म के चरण से । यों तो मनुष्य रावण भी था ? परन्तु कैसा था ? ग्यारह लाख वर्ष से प्रति वर्ष उसे मारते आ रहे हैं, गालियाँ देते आ रहे हैं, जलाते आ रहे हैं । यह सब क्यों ? इसलिए कि उसने
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