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मानव जीवन का ध्येय अनन्त-अनन्त बार जन्ममरण न किया हो ? भगवती सूत्र में हमारे जन्ममरण की दुःख भरी कहानी का स्पष्टीकरण करने वाली एक महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तरी है !
गौतम गणधर पूछते हैं:
"भंते ! असंख्यात कोड़ी कोड़ा योजन-परिमाण इस विस्तृत विराट लोक में क्या कहीं ऐसा भी स्थान है, जहाँ कि इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो?"
भगवान् महावीर उत्तर देते हैं:
"गौतम ! अधिक तो क्या, एक परमाणु पुद्गल जितना भी ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ इस जीव ने जन्म-मरण न किया हो ।” - "नधि केइ परमाणुपोग्गलमत्त विपएसे जत्थ णं अयं जीवे न जाए चा, न मए वा।" -[भग १२, ७, सू० ४५७ ]
भगवान् महावीर के शब्दों में यह है हमारी जन्म-मरण की कड़ियों का लम्बा इ िहास ! बड़ी दुखभरी है हमारी कहानी ! अब हम इस कहानी को कब तक दुहराते जायँगे ? क्या मानव जीवन का ध्येय एकमात्र जन्म लेना और मर जाना ही है। क्या हम यों ही उतरते चढ़ते, गिरते-पड़ते इस महाकाल के प्रवाह में तिनके की तरह बेबस लाचार बहते ही चले जायँगे ? क्या कहीं किनारा पाना, हमारे भाग्य में नहीं बदा है ? नहीं, हम मनुष्य हैं, विश्व के सर्वश्रेष्ठ प्राणी हैं । हम अपने जीवन के लक्ष्य को अवश्य प्राप्त करेंगे ! यदि हमने मानव-जीवन का लक्ष्य नहीं प्राप्त किया तो फिर हम में और दूसरे पशु पक्षियों में अन्तर ही क्या रह जायगा ? हमारे जीवन का ध्येय, अधर्म नहीं, धर्म हैअन्याय नहीं, न्याय है-दुराचार नहीं, सदाचार है-भोग नहीं, त्याग है । धर्म, त्याग और सदाचार ही हमें पशुत्व से अलग करता है | अन्यथा हम में और पशु में कोई अन्तर नहीं है, कोई भेद नहीं है । इस सम्बन्ध में एक प्राचार्य कहते भी हैं कि आहार, निद्रा, भय और कामवासना जैसी पशु में हैं वैसी ही मनुष्य में भी हैं, अतः इनको ले कर, भोग को
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