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श्राद्धविधि प्रकरण
सोमश्रेष्ठ उदास होकर अपने पुत्र के पास आकर कहने लगा बेटा! सचमुच कोई अपने दुर्भाग्य का उदय हुआ है कि जिससे इस प्रकार की विडंबना आ पड़ी है। कहा है कि:
सह्येते प्राणिभिर्बाद्धं पितृमातृपराभवः ।
भार्यापरिभवं सोढुं तिर्यचापि नहि क्षमः ॥ ४ ॥
प्राणी अपने माता पिता के वियोगादि बहुत से दुःखों को सहन कर सकते हैं । परन्तु तिर्यंच जैसे भी अपनी स्त्री का पराभव सहन नहीं कर सकते तब फिर पुरुष अपनी स्त्री का पराभव कैसे सहन कर सके ?
चाहे जिस प्रकार से इस राजा को शिक्षा करके भी स्त्री पीछे लेनी चाहिये और उसका उपाय मात्र इतना ही है कि उसमें कितना एक द्रव्य व्यय होगा । हमारे पास छह लाख द्रव्य मौजूद है उसमेंसे पांच लाख लेकर मैं कहीं देश में जाकर किसी अतिशय पराक्रमी राजा की सेवा करके उसके बलकी सहायता से तेरी माता को अवश्य ही पीछे प्राप्त करूंगा । कहावत है कि:
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स्वयं प्रभुत्वं स्वहस्तगं वा, प्रभुं विमा नो निजकार्यासद्धिः । विहाय पोतं तदुपाश्रितं वा, वारानिधि क क्षमते तरीतुम् ॥ ५ ॥
अपने हाथ में वैसी ही कुछ बड़ी सत्ता हो कि जिस से स्वयं समर्थ हो तथापि किसी अन्य बड़े आदमी का आश्रय लिये बिना अपने महान कार्य की सिद्धि नहीं होती। जैसे कि मनुष्य स्वयं चाहे कितना ही समथ हो तथापि जहाज या नाव आदि साधन का आश्रय लिये बिना क्या बड़ा समुद्र तरा जा सकता है ?
ऐसा कहकर वह सेठ पांच लाख द्रव्य साथ लेकर किसी दिशा में गुप्त रीति से चला गया। क्योंकि पुरुष अपनी प्राण प्यारी पत्नी के लिए क्या क्या नहीं करता ? कहा है कि:
दुष्कराण्यपि कुर्वति, जना: प्राणप्रियाकृते ।
किं नाब्धि लंघयामासुः पाण्डवा द्रौपदी कृते ॥ ६ ॥
मनुष्य अपनी प्राणप्रिया के लिये दुष्कर काय भी करते हैं। क्या पांडवों ने द्रौपदी के लिये समुद्र उल्लंधन नहीं किया ।
अब सोमसेठ के परदेश गये बाद पीछे श्रीदत्त की स्त्री ने एक पुत्री को जन्म दिया । अहो ! अफसोस ! दुःख के समय भी दैव कैसा वक्र है ? श्रीदत्त अति शोकातुर होकर विचार करने लगा कि धिःकार हो मेरे इस दुःख की परंपरा को माता पिता का वियोग हुवा; लक्ष्मो की हानि हुई; राजा द्वेषी बना और अंत में पुत्री का जन्म हुआ। दूसरे का दुःख देखकर खुशी होने वाला यह दुर्दैव न जाने मुझ पर क्या २ करेगा ? श्रीदत्त ने इसी प्रकार चिंता में अपने दिन व्यतीत किये । उसे एक शंखदत्त नामक मित्र था, वह श्रीदत्तको समझाकर कहने लगा कि हे मित्र ! लक्ष्मी के लिये इतनी चिंता क्यों करता हैं ? चलो हम दोनों समुद्र पार परद्वीप में जाकर व्यापार द्वारा द्रव्य संपादन करें और उसमें से आधा २ हिस्सा लेकर सुखी हों। मित्र के इस विचार से श्रीदत्त अपनी स्त्री और पुत्री को अपने सगे संबंधियों को सोंपकर उस मित्र के साथ जहाज में बैठ सिंहल नामा