________________
श्राद्धविधि प्रकरण किये हुए कपट के स्वभाव से गांगील नामक ऋषि की कमलमाला नाम की कन्या होगी इन दोनों का विवाह सम्बन्ध हुवे बाद तूं च्यव कर जातिस्मरणशान को प्राप्त करनेवाला उनका पुत्र होवेगा। तदनंतर अनुक्रम से च्यवकर हंसी का जीव तूं मकरध्वज राजा और सारसी का जीव कमलमाला कन्या (यह तेरी रानी ) उत्पन्न हुये बाद उस देवता ने स्वयं शुक का रूप बनाकर मिठी वाणी द्वारा तुझे तापसों के आश्रम में लेजाकर उसका मिलाप करवा दिया। वहां से पीछे लाकर तेरे सैन्य के साथ तेरा मिलाप कराकर वह पुनः स्वर्ग में चला गया। तथा देवलोक से व्यव कर उसी देवका जीव यह तुम्हारा शुकराज कुमार उत्पन्न हुआ है। इस पुत्र को लेकर तूं आम्रवृक्ष के नीचे बैठकर कमलमाला के साथ जब तूं शुक को वाणी संबंधी बात चीत करने लगा उस वक्त वह बात सुनते ही शुकराज को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुवा इससे यह विचारने लगा कि इसवक्त ये मेरे माता पिता हैं परन्तु पूर्वभव में तो ये दोनों मेरी स्त्रियां थीं, अतः इन्हें माता पिता किस तरह कहा जाय ? इस कारण मौन धारण करना ही श्रेयस्कर है । भूतादिक का दोष न रहते भी शुकराज ने पूर्वोक्त कारण से ही मौन धारण किया था परन्तु इस वक्त इससे हमारा ववन उल्लंघन न किया जाय इसी कारण यह मेरे कहने से बोला है। यह बालक होने पर भी पूर्वभव के अभ्यास से निश्चय से सम्यक्त्व पाया है। शुकराज कुमार ने भी महात्मा के कथनानुसार सब बातें कबूल की। फिर श्रीदत्त केवलज्ञानी बोले कि हे शुकराज! इसमें भाश्चर्य ही क्या है ? यह संसाररूप नाटक तो ऐसा ही है । क्योंकि इस जीवने अनन्त भवों तक भ्रमण करते हुये हरएक जीव के साथ अनंतानंत संबंध कर लिये है। शास्त्र में कहा है कि जो पिता है वही पुत्र भी होता है और जो पुत्र है वही पिता बनता है। जो स्त्री है वही माता होती है और जो माता है वही स्त्री बनती है। उत्तराध्ययन सत्र में कहा है कि
न सा जाइ न सा जोखी न तं ठाणं न तं कुलं । न जाया न मुवा जत्थ सव्वे जीव अनंतसो॥१॥ - ऐसी कोई जाति, योनि, स्थान, कुल बाकी नहीं रहा है कि जिसमें इस जीव ने जन्म और मरण प्रांत न किया हो क्योंकि ऐसे अनंत बार हर एक जीव ने अनंत जीवों के साथ संबंध किये हैं। इसलिए किसी पर राग एवं किसीपर द्वेष भी करना उचित नहीं है समयज्ञ पुरुषों को मात्र व्यवहार मार्ग का अनुसरण करना चाहिये । महात्मा (श्रीदत्त केवली ) फिर बोले कि मुझे भी ऐसा ही केवल वैराग्य के कारण जैसा संबंध बना है वा जिस प्रकार बनाव बना है वह मैं तुम्हारे समक्ष विस्तार से सुनाता हूं।
कथांतर्गत श्रीदत्त केवली का अधिकार। : लक्ष्मी निवास करने के लिए स्थान रूप श्रीमंदिर नामक नगर में स्त्रीलंपट और कपटप्रिय एक सुरकांत नामक राजा राज्य करता था। उसी शहर में दान देने वालों में एवं धनाढ्यों में मुख्य और राज्यमान्य सोमसेठ नामक एक नगर सेठ रहता था। लक्ष्मी के रूप को जीतने वाली सोमश्री नामा उसकी स्त्री थी । उसके श्रीदत्त नामक एक पुत्र और श्रीमती नामा उसके पुत्र की स्त्री थी। इन चारों का समागम सचमुच में पुण्य के योग से ही हुवा था।
योग से
वा था।।
.
.
....
.
.
..
..
....
.
..............
.