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समीचीन-धर्मशाख
ही ठक्कुर (अमृतचंद्राचार्य ) ने भी 'लोके शास्त्रामासे' इत्यादि पद्यकी (जो कि पुरुषार्थसिद्ध्युपायका २६ वें नंबरका पद्य है) घोषणा की है। यथा--
" एतदनुसारणव ठक्कुरोऽपीदमपाठीत ---- लोके शास्त्राभास समयाभास च देवताभास ।।
नित्यमपि तत्त्वरचिना कर्तव्यममूढदृष्टित्वम् ॥" इस उल्लखस यह पाया जाता है कि पुरुषार्थसिद्धयुपाय जैसे माननीय ग्रन्थमें भी रत्नकरंडका आधार लिया गया है और इसलिये यह ग्रन्थ उसमें भी अधिक प्राचीन तथा माननीय है।
(५) श्रीपद्मप्रभमलधारिदेवने, नियमसारकी टीकाम, 'तथा चोक्त श्रीसमंतभद्रस्वामिभिः' 'उक्त चापासकाध्ययन' इन वाक्योंके साथ रत्नकरंडके 'अन्यूनमनतिरिक्त' और 'आलोच्यसबमेनः' नाम के दो पद्य उद्धृत किये हैं, जो क्रमशः द्वितीय अध्ययनमें नं. १
और छठे अध्ययनमें नं० ४ पर दर्ज हैं। पद्मप्रभमलधारिदेवका अस्तित्व-समय विक्रमकी १२ वीं शताब्दीके लगभग पाया जाता है । इससे यह ग्रन्थ आजसे आठसौ वर्ष पहले भी स्वामिममन्तभद्रका बनाया हुआ माना जाता था, यह बात स्पष्ट है।
(६) विक्रमकी ११ वीं शताब्दी (पूर्वार्द्ध) के विद्वान् श्रीचामुण्डरायने 'चारित्रचार' में रत्नकरंडका 'सम्यग्दर्शनशुद्धाः' इत्यादि पद्य नं० ३५ उद्धृत किया है। इतना ही नहीं बल्कि कितने ही स्थानोंपर इस ग्रन्थके लक्षणादिकोंको उत्तम समझकर उन्हें शब्दानुसरणसहित अपने ग्रन्थका एक अंग भी बनाया है, जिसके दो नमूने इस प्रकार हैं
सम्यग्दर्शनशुद्धः संसारशरीरभोगनिर्विण्णाः । पंचगुरुचरणशरणा दशनिकस्तत्त्वपथगृह्यः ॥ -रत्नकरंड