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समीचीन-धर्मशास्त्र कितादि अष्ट अंगोंके साथ उनके प्रतिपक्षी शंकादिक दोषोंके भी उदाहरण देने चाहिये थे। इसी प्रकार तीन मूढताओंको धरनेवाले न धरनेवाले, मद्य-मांस-मधु आदिका सेवन करनेवाले न करनेवाले, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंके पालनमें तत्परअतत्पर, 'उच्चैर्गोत्रं प्रणतेः' नामक पद्य में जिन फलोंका उल्लेख है उनको पानेवाले, सल्लेखनाकी शरणमें जानेवाले और न जानेवाले, इन सभी व्यक्तियोंका अलग-अलग दृष्टान्तरूपसे उल्लेख करना चाहिये था । परन्तु यह सब कुछ भी नहीं किया गया
और न उक्त छहों पद्योंकी उपस्थितिमें इस न करनेकी कोई माकूल ( समुचित ) वजह ही मालूम होती है ! ऐसी हालतमें उक्त पद्योंकी स्थिति और भी ज्यादा संदेहास्पद हो जाती है।
(४) 'धनश्री' नामका पद्य जिस स्थितिमें पाया जाता है उसमें उसके उपाख्यानोंका विपय अच्छी तरहसे प्रतिभासित नहीं होता । स्वामी समन्तभद्रकी रचनामें इस प्रकारका अधूरापन नहीं हो सकता।
(५) ब्रह्मचर्याणुव्रतके उदाहरणमें 'नीली' नामकी एक स्त्रीका जो दृष्टान्त दिया गया है वह ग्रन्यके संदर्भसे--- उसकी रचनासे-मिलता हुआ मालूम नहीं होता । स्वामी समन्तभद्रद्वारा यदि उस पद्य की रचना हुई होती तो वे, अपने ग्रन्थकी पूर्वरचनाके अनुसार, वहाँ पर किमी पुरुप-व्यक्तिका ही उदाहरण देते--स्त्रीका नहीं; क्योंकि उन्होंने ब्रह्मचर्याणुव्रतका जो स्वरूप 'न तु परदारान् गच्छति' नामके पद्यमें 'परदारनिवृत्ति'
और 'स्वदारसंतोप' नामोंके साथ दिया है वह पुरुपोंको प्रधान करके ही लिखा गया है । दृष्टान्त भी उसके अनुरूप ही होना चाहिये था।
(६) परिग्रहपरिमाणव्रतमें 'जा' का दृष्टान्त दिया गया है । टीकामें प्रभाचन्द्रने 'जय' को कुमवंशी राजा सोमप्रभ'