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समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०१ लौकिक जनोंके लिये शरण्यभूत होते हैं-जनता जिनकी शरणमें जाकर शान्ति-मुखका अनुभव करती है।' ___व्याख्या---यहाँ चौथी विशिष्टावस्थाका उल्लेख है जो धर्मचक्रके प्रवर्तक तीर्थकरकी अवस्था है,जिसे प्राप्त करके शुद्ध सम्यम्हष्टि जीव देवेन्द्रों, असुरेन्द्रों, नरेन्द्रों और मुनीन्द्रों जैसे सभी लोकमान्योंके द्वारा नमस्कृत एवं पूजित होते हैं, सभीके शरण्यभूत बनते हैं और इस तरह लोकमें सबसे अधिक ऊँचे एवं प्रतिष्ठित पदको प्राप्त करने में भी समर्थ होते हैं। शिवमजरमरुजमक्षयमव्यावाधं विशोक [म]भय[म]शंकम् । काष्ठागतसुख-विद्या-विभवं विमलं भजन्ति दर्शनशरणाः॥४०
'जो सम्यग्दर्शनकी शरण में प्राप्त हैं-सम्यग्दर्शन ही जिनका एक रक्षक है-वे उस शिवपदको (भी ) प्राप्त होते हैं-प्रात्माकी उस परमकल्याणमय अवस्थाको भी तद्रूप होकर अनुभव करते हैंजो जरासे विहीन है, रोगस मुक्त है, क्षयसे रहित है, विविध प्रकारकी आवाधाओंसे-कष्ट-परम्परागोंसे-विवर्जित हैं, शोकसे मुक्त है, भयसे हीन हैं, शंकासे शून्य है, सुख और ज्ञानकी विभूतिके परमप्रकर्षको-चरमसीमाको-लिए हुए हैं और द्रव्य-भाव रूप कममलका जहाँ सर्वथा अभाव रहता है।' ___व्याख्या-जो शुद्ध सम्यग्दर्शनके अनन्य उपासक होते हैं वे अन्तको दुःखमय संसार-बन्धनोंसे छूटकर सदाके लिये मुक्त हो जाते हैं और परम ज्ञानानन्दमय बने रहते हैं । सम्यग्दृष्टिके लिये एक-न-एक दिन शिवपदका प्राप्त करना अवश्यंभावी हैचाहे उसकी प्राप्ति के लिये उसे कितने ही भव धारण करने पड़ें। यहाँ उस पदके स्वरूपका कुछ निर्देश करते हुए बतलाया है कि वह शिवपद जरासे, रोगोंसे, क्षयसे, बाधाओंसे, भयोंसे और शंकाओं से विहीन होता है, सुख तथा ज्ञानविभूतिको उसकी चरम सीमा