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कारिका १३६] सामयिक-श्रावक-लक्षण १८१ इस तरह यह जाना जाता है कि चारों दिशाओंमें तीन तीन श्रावोंके साथ एक एक प्रणामकी जो प्रथा आजकल प्रचलित है वह टीकाकार प्रभाचन्द्रके मतसे स्वामिसमन्तभद्र-सम्मत नहीं है।
दोनों हाथोंको मुकलित करके–कमल-कलिकादिके रूपमें स्थापित करके-जो उन्हें प्रदक्षिणाके रूपमें तीन वार घुमाना है उसे आवर्तत्रितय ( तीन वार आवर्त करना ) कहते है । यह श्रावर्तत्रितयकर्म, जो वन्दनामुद्रामें कुहनियोंको उदर पर रख कर किया जाता है, मन-वचन-कायरूप तीनों योगोंके परावर्तनका सूचक है * और परावर्तन योगोंकी संयतावस्थाका द्योतक शुभ व्यापार कहलाता है, ऐसा पं० आशाधरजीने प्रकट किया है ।। ऐसी हालतमें 'आवर्तत्रितय' पदका प्रयोग वन्दनीयके प्रति भक्तिभावके चिन्हरूपमें तीन प्रदक्षिणाओंका द्योतक न होकर त्रियोगशुद्धिका द्योतक है ऐसा फलित होता है। परन्तु 'त्रियोगशुद्धः' पद तो इस कारिकामें अलगसे पड़ा हुआ है, फिर दो बारा त्रियोगशुद्धिका द्योतन कैसा ? इस प्रश्नके समाधानरूपमें कुछ विद्वानों का कहना है कि "आवर्तत्रितयमें निहित मन-वचन-काय-शुद्धि कृतिकर्मकी अपेक्षासे है और यहाँ जो त्रियोग-शुद्धः पदसे मनवचन-कायकी शुद्धिका उल्लेख किया है वह सामायिककी अपेक्षा से है।" परन्तु कृतिकर्म ( कर्मछेदनोपाय ) तो सामायिकका अंग है और उस अंगमें द्वादशावर्तसे भिन्न त्रियोगशुद्धिको अलगसे गिनाया गया है + तब 'त्रियोगशुद्धः' पदके वाच्यको उससे अलग
* कथिता द्वादशावर्ता वपुर्वचनचंतसां । .
स्तव-सामायिकाद्यन्तपरावर्तनलक्षणाः ॥ -अमितगति: + शुभयोग-परावर्तानावर्तान् द्वादशाद्यन्ते ।
साम्यस्य हि स्तवस्य च मनोङ्गगी: संयतं परावय॑म् ।। + द्विनिषण्णं यथाजर्ति द्वादशावर्तमित्यपि ।
चतुर्नति त्रिशुद्धं च कृतिकर्म प्रयोजयेत् । -चारित्रसार