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कारिका १३६ ] सामयिक-श्रावक-लक्षण १७६ जा चुका है, उसको फिरसे यहाँ देनेकी जरूरत नहीं है। यहाँ पर इतना ही समझ लेना चाहिये कि इस पद (प्रतिमा) के पूर्वमें जिन बारह व्रतोंका सातिचार-निरतिचारादिके यथेच्छ रूपमें खण्डशः अनुष्ठान या अभ्यास चला करता है वे इस पदमें पूर्णताको प्राप्त होकर सुव्यवस्थित होते हैं।
यहाँ 'निःशल्यो' पद खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य है और इस बातको सूचित करता है कि व्रतिकके लिये निःशल्य होना अत्यन्त आवश्यक है । जो शल्यरहित नहीं वह व्रती नहीं-बनोंके वास्तविक फलका उपभोक्ता नहीं हो सकता ! तत्त्वार्थसूत्र में भी 'निःशल्यो व्रती सूत्रके द्वारा ऐसा ही भाव व्यक्त किया गया है । शल्य तीन हैं—माया, मिथ्या और निदान । 'माया' बंचना एवं कपटाचारको कहते हैं, 'मिथ्या दृष्टिविकार अथवा तत्तद्विपयक तत्त्व-श्रद्धाके अभावका नाम है और 'निदान' भावी भोगादिकी आकांक्षाका द्योतक है । ये तीनों शल्यकी तरह चुभने वाली तथा बाधा करने वाली चीजें हैं, इसीसे इनका 'शल्य' कहा गया है । व्रतानुष्ठान करनेवालेको अपने व्रतविषयमें इन तीनोस ही रहित होना चाहिये; तभी उसका व्रतानुष्ठान सार्थक हो सकता है । केवल हिंसादिकक त्यागसे ही कोई व्रती नहीं बन सकता, यदि उसके साथ मायादि शल्यें लगी हुई है।
सायिक-श्रावक-लगा चतुरावत-त्रितयश्चतुःप्रणामः स्थितो यथाजातः । सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसंध्यमभिवन्दी॥४॥१३६।
'जो श्रावक ( आगम-विहित समयाचारके अनुसार ) तीन तीन आवर्तोंके चार वार किये जाने की, चार प्रणामोंकी, उर्ध्व कायात्सर्गकी तथा दो निपद्याओं (उपवेशनों)की व्यवस्थासे व्यवस्थित और यथाजातरूपमें-दिगम्बरवेपमें अथवा बाह्याभ्यन्तर-परिग्रहकी