Book Title: Samichin Dharmshastra
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 333
________________ १७८ समीचीन धर्मशास्त्र [ श्र० ७ रखता है। जो जिन चरणकी शरण में प्राप्त होता है उसके लिये मद्य- मांसादिक वर्जनीय हो जाते हैं; जैसा कि इसी ग्रन्थमें अन्यत्र (का० ८४ ) "मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयाते:' इस वाक्यके द्वारा व्यक्त किया गया है । इस पदधारीके लिये प्रयुक्त हुआ 'तत्त्वपथगृह्यः विशेषण और भी महत्वपूर्ण है और वह इस बातको सूचित करता है कि यह श्रावक सन्मार्गी अथवा अनेकान्त और अहिंसा दोनोंकी पक्षको लिए हुए होता है । ये दोनों ही सन्मार्ग के अथवा जिनशासन के दो चरण हैं । व्रतिक-श्रावक - लक्षण निरतिक्रमणमणुव्रत - पंचकमपि शीलसप्तकं चाऽपि । धारयते निःशल्यो योऽसौ व्रतिनां मतो व्रतिकः ||३|| १३८ ॥ जो श्रावक निःशल्य ( मिथ्या, माया और निदान नामकी तीनों शस्योंसे रहित ) हुआ बिना श्रतीचारके पांचों अगुव्रतों और साथ ही सातों शीलवतीको भी धारण करता है वह व्रतियों-गणधरादिक देवों के द्वारा 'प्रतिक' पदका धारक ( द्वितीय धावक ) माना गया है ।' ----- व्याख्या - यहाँ 'शीलसप्तक' पदके द्वारा तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों का ग्रहण है— दोनों प्रकारके व्रतोंके लिए संयुक्त एक संज्ञा 'शील' है और 'सप्तक' शब्द उन व्रतोंकी मिली-जुली संख्याका सूचक हैं | तत्त्वार्थ सूत्रमें भी ' व्रत - शीलेषु पंच पंच यथाक्रम इस सूत्र के द्वारा इन सातों व्रतोंकी 'शील' संज्ञा दी गई है । इन सप्त शीलवतों और पंच अणुव्रतोंको, जिनका प्रतीचार सहित वन इस ग्रन्थ में पहले किया जा चुका है, यह द्वितीय श्रावक निरतिचाररूप से धारण - पालन करता है । इन बारह व्रतों और उनके साठ अतीचारोंका विशेष वर्णन इस प्रन्थ में पहले किया

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