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समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०७ हुआ है और जो तत्त्वपथकी ओर आकर्षित है--सम्यग्दर्शनादिरूप सन्मार्गकी अथवा तत्त्वरूप अनेकान्ता और मार्गरूप ‘अहिमा' दोनोंके पक्षको लिए हुए है-वह 'दर्शनिक' नामका (प्रथमपद या प्रतिमाका धारक ) श्रावक है।'
व्याख्या-जिस सम्यग्दर्शनकी शुद्धिका यहाँ उल्लेख है वह प्रायः उसी रूपमें यहाँ विक्षित है जिस रूपमें उसका वर्णन इस ग्रन्थक प्रथम अध्ययनमें किया गया है और इसलिए उसकी पुनरावृत्ति करनेकी जरूरत नहीं है । पूर्व-कारिकामें यह कहा गया है कि प्रत्येक बदके गुण अपने पूर्वगुणांको साथमें लिये रहते है। इस पदसे पूर्व श्रावकका काई पद है नहीं, तब इस पदन पूर्वक गुण कौनस ? व गुण चतुर्थ-गुणस्थानवर्ती 'अव्रतसम्यम्हाष्ट' के गुण हैं, उन्हांका द्योतन करनेके लिये प्रारम्भमें ही 'सम्यग्दशनशुद्धः' इस पदका प्रयोग किया गया है। जो मनुष्य सम्यग्दर्शनस युक्त होता है उसकी दृष्टि में विकार न रहनेस वह संसारको, शरीरका और भागोंको उनक यथार्थ रूपमें देखता है
और जो उन्हें यथाथ रूपमें देखता है वही उनमें याक्ति न रखनके भावको अपना सकता है। उसी भावको अपनानेका यहाँ इस प्रथमपन-धारी श्रावकके लिये विधान है। उसका यह अर्थ नहीं है कि वह एक दम संसार देह तथा भोगोंसे विरक्ति धारण करके वैरागी बन जाय बल्कि ग्रह अर्थ है कि वह उनसे सब प्रकारका सम्पर्क रखता और उन्हें सेवन करता हुआ भी उनमें
आसन न होवे---सदा ही अनासक्त रहनेका प्रयत्न तथा अभ्यास करता रहे । इसके लिये वह समय समय पर अनेक नियमोंको ग्रहण कर लेता है, उन बारह व्रतोंमें से भी किसीकिसीका अथवा सबका खण्डशः अभ्यास करता है जिनका + "तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूपं' (युक्त्यनुशासन )
"एकान्तदृष्टिप्रतिषेधि तत्त्वं" (स्वयम्भूस्तोत्र) ---इति समन्तभद्रः