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सप्तम अध्ययन श्रावकपदों में गुणवृद्धिका नियम
श्रावक - पदानि देवेरेकादश देशितानि येषु खलु । स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह संतिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः ||१||१३६
'श्रीतीर्थंकरदेवने भगवान् वर्द्धमानने-श्रावकों के पद प्रतिमारूप गुणस्थान–ग्यारह बतलाए हैं, जिनमें अपने - अपने गुणस्थानके गुण पूर्वके सम्पूर्ण गुणोंके साथ क्रम-विवृद्ध होकर रहते हैंउत्तरवर्ती गुणस्थानोंमें पूर्ववर्ती गुणस्थानोंके सभी गुणोंका होना अनिवार्य ( लाज़िमी ) है, तभी उस पद गुरणस्थान अथवा प्रतिमाके स्वरूपकी पूर्ति होती है ।'
व्याख्या - जो श्रावक-श्रेणियाँ आमतौर पर 'प्रतिमा' के नाम - से उल्लेखित मिलती हैं उन्हें यहाँ 'श्रावकपदानि पदके प्रयोगद्वारा खासतौर से 'श्रावकपद' के नामसे उल्लेखित किया गया है और यह पद-प्रयोग अपने विषयकी सुस्पष्टताका द्योतक है । श्रावकके इन पदोंकी श्रागम - विहित मूल संख्या ग्यारह है- सारे श्रावक ग्यारह दर्जोंमें विभक्त हैं । ये दर्जे गुणों की अपेक्षा लिये हुए हैं और इसलिये इन्हें श्रावकीय-गुणस्थान भी कहते हैं । दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि चौदह सुप्रसिद्ध गुणस्थानों में श्रावकोंसे सम्बन्ध रखने वाला 'देशसंयत' नामका जो पाँचवां गुणस्थान है उसीके ये सब उपभेद हैं। और इसलिये ये एकमात्र
* 'क्रमाद्वृद्धा:' इति पाठान्तरम् ।