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कारिका १३७] दर्शनिक-श्रावक-खक्षण निरतिचार पालन उसे अगले पदमें करना है और इस तरह वह अपनी आत्मशक्तिको विकसित तथा स्थिर करनेका कुछ उपाय इस पदमें प्रारम्भ कर देता है । दूसरे शब्दोंमें यों कहिये कि वह नियमित रूपसे मांसादिके त्यागरूपमें मूलगुणोंका धारण-पालन शुरू कर देता है जिनका कथन इस ग्रन्थमें पहले किया जा चुका है और यह सब 'संसार शरीर-भोग-निविण्णाः ' और 'पंच-गुरुचरण-शरणः' इन दोनों पदोंके प्रयोगसे साफ ध्वनित होता है। पंचगुरुओंमें अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँच आगमविहित परमेष्ठियोंका अर्थात् धर्मगुरुओंका समावेश है-माता-पितादिक लौकिक गुरुत्रोंका नहीं। 'चरण' शब्द प्रामतौर पर पदों-पैरोंका वाचक है, पद शरीरके निम्न ( नीचेके) अंग होते हैं, उनकी शरणमें प्राप्त होना शरण्यके प्रति अतिविनय तथा विनम्रताके भावका द्योतक है। चरणका दूसरा प्रसिद्ध अर्थ 'आचार' भी है, जैसा कि इसी ग्रन्थके तृतीय अध्ययन में प्रयुक्त हुए 'रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः' 'सकलं विकलं चरणं' और 'अणु-गुण-शिक्षा-व्रतात्मकं चरण' इन वाक्योंके प्रयोगसे जाना जाता है । आचारमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य ऐसे पांच प्रकारका आचार शामिल है . अपने अपने आचार-विशेषोंके कारण ही ये पंचगुरु हमारे पूज्य और शरण्य हैं अतः इन पंचगुरुओंके आचारको अपनाना-उसे यथाशक्ति अपने जीवनका लक्ष्य बनाना ही वस्तुतः पंचगुरुओंकी शरणमें प्राप्त होना है । पदोंका आश्रय तो सदा और सर्वत्र मिलता भी नहीं, आचारका आश्रय, शरण्यके सम्मुख मौजूद न होते हुए भी, सदा और सर्वत्र लिया जा सकता है । अतः चरणके दूसरे अर्थकी दृष्टि से पंचगुरुओंकी शरणमें प्राप्त होना अधिक महत्व दसण-णाण-चरितं तब्वे विरियाचरम्हि पंचविहे ।
-मूलाचार ५-२