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समीचीन धर्मशास्त्र
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और वह जीवन पर्यन्त के लिये होता है । दूसरे यह कि दिव्रतमें ग्रहण किए हुए विशाल देशका - उसकी क्षेत्रावधिका -- इस व्रतमें उपसंहार (अल्पीकरण) किया जाता है और वह उपसंहार उत्तरोतर बढ़ता रहता है - देशव्रतमें भी उपसंहारका अवकाश बना रहता है । अर्थात् पहले दिन उपसंहार करके जितने देशकी मर्यादा की गई हो, अगले दिन उसमें भी कमी की जा सकती है - भले ही पहले दिन ग्रहण की हुई देशकी मर्यादा कुछ अधिक समय के लिये ली गई हो, अगले दिन वह समय भी कम किया जा सकता है; जबकि दिव्रत में ऐसा कुछ नहीं होता और यही सब इन दोनों व्रतोंमें परस्पर अन्तर है ।
देशावकाशिक व्रतकी सीमाएँ
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गृह-हारि-ग्रामाणां क्षेत्र - नदी -दाव-योजनानां च । देशावकाशिकस्य स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धाः || ३ || ६३ ॥
'गृह, हारि ( रम्य उपवनादि प्रदेश ), ग्राम, क्षेत्र ( खेत ) नदी, वन और योजन इनको तथा ( चकार या उपलक्षरणसे ) इन्हीं जैसी दूसरी स्थान-निर्देशात्मक वस्तुओं को तपोवृद्ध मुनीश्वर ( गणधरारादिक पुरातनाचार्य ) देशावका शिकव्रत की सीमाएँ क्षेत्र - विषयक मर्यादाएँ - बतलाते हैं।'
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व्याख्या—यहाँ 'च' शब्द के प्रयोग अथवा उपलक्षणसे जो दूसरी सीमावस्तुएँ विवक्षित हैं उनमें गली मुहल्ला, सरोवर, पुल (Bridge ) वृक्षविशेष, वस्तुविशेष, कटक, जनपद, राजधानी, पर्वत और समुद्र जैसी वस्तुएँ भी शामिल की जा सकती हैं। - देशावकाशिककी कालमर्यादाएँ
संवत्सरमृतुमयनं मास- चतुर्मास - पक्षमृक्षं च । देशावकाशिकस्य प्राहुः कालावधिं प्राज्ञाः || ४६४ ॥