Book Title: Samichin Dharmshastra
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 304
________________ कारिका १११-१२] वैयावृत्य लक्षामा १४१ जीवन व्यतीत करते हुए ज्ञानकी आराधना, शुभभावोंकी साधना और निःस्वार्थभावसे लोकहितकी दृष्टिको लिये हुए धार्मिक साहित्यकी रचनादिरूप तपश्चर्या में दिन-रात लीन रहले हो । इसीसे प्रभाचन्द्राचार्य ने भी अपनी टीकामें 'संयमिना' पदका अर्थ 'देश-सकल-यतीनां करते हुए उसमें सकलसंयमी और देशसंयमी दोनों प्रकारके यतियोंका ग्रहण किया है। ___ इन कारिकाओंमें प्रयुक्त हुए 'धर्माय', 'अनपेक्षितोपचारोपक्रिय', 'गुणरागात्' और 'यावानुपग्रहः' पद अपना खास महत्व रखते हैं। 'यावानुपग्रहः'पदम दूसरा सब प्रकारका उपकार, सहयोग, साहाय्य तथा अनुकूलवर्तनादि आजाता है, जिसका इन दोनों कारिकाओंमें स्पष्ट रूपसे उल्लेख नहीं है । उदाहरणके लिये एक संयमी किसी ग्रन्थका निर्माण करना चाहता है उसके लिये आवश्यक विषयोंके ग्रन्थोंको जुटाना, ग्रन्थोंमेंसे अभिलषित विषयोंको खोज निकालने आदिके लिए विद्वानोंकी योजना करना, प्रतिलिपि आदिके लिये लेखकों (क्लों ) की नियुक्ति करना और ग्रंथके लिखे जाने पर उसके प्रचारादिकी योग्य व्यवस्था करना, यह सब उस संयमीका आहार-औषधादिके दानसे भिन्न दूसरा उपग्रह है; जैसा कि महाराज अमोघवर्षने आचार्य वीरसेनजिनसेनके लिये और महाराज कुमारपालने हेमचन्द्राचार्यके लिए किया था। इसी तरह दूसरे सद्गृहस्थों-द्वारा किया हुश्रा दूसरे विद्वानों एवं साहित्य-तपस्वियोंका अनेक प्रकारका उपग्रह है। 'धर्माय' पद दानादिकमें धार्मिकदृष्टिका सूचक है और इस बातको बतलाता है कि दानादिकका जो कार्य जिस संयमीके प्रति किया जाय वह उसके धर्मकी रक्षार्थ तथा उसके द्वारा अपने धर्मकी रक्षार्थ होना चाहिये-केवल अपना कोई लौकिक प्रयोजन साधने अथवा उसकी सिद्धिकी श्राशासे नहीं । इसी तरह 'गुरुरागास्' पद भी लौकिकदृष्टिका प्रतिषेधक है और इस पातको सूक्ति

Loading...

Page Navigation
1 ... 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337