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समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०६ चेतन-अचेतन-कृत उपसर्ग तथा दुर्भिक्षादिकको दूर करनेका यदि कोई उपाय नहीं बन सकता तो उसके निमित्तको पाकर एक मनुष्य सल्लेखनाका अधिकारी तथा पात्र है, अन्यथा-उपायके संभव और मशक्य होनेपर--वह उसका अधिकारी तथा पात्र नहीं है।
'धर्माय' पद दा दृष्टियोंको लिये हुए है-एक अपने स्वीकृत समीचीन धर्मकी रक्षा-पालनाकी और दूसरी यात्मीय धर्मकी यथाशक्य साधना-आराधनाकी । धर्मकी रक्षादिके अर्थ शरीरक त्यागकी बात सामान्यरूपसं कुछ अटपटी-सी जान पड़ती है; क्योंकि आमतौरपर 'धर्मार्थकाममोक्षाणां शरीरं साधनं मतम्' इम वाक्यके अनुसार शरीर धमका साधन माना जाता है, और यह बात एक प्रकारसे ठीक ही है; परन्तु शरीर धर्मका सर्वथा अथवा अनन्यतम साधन नहीं है, वह साधक होनेके स्थानपर कभीकभी बाधक भी हो जाता है । जब शरीरको कायम रखने अथवा उसके अस्तित्वसं धमक पालनमें बाधाका पड़ना अनिवार्य हो जाता है तब धर्मकी रक्षाथ उसका त्याग ही श्रेयस्कर होता है । यही पहली दृष्टि है जिसका यहाँ प्रधानतासे उल्लेख है। विदेशियों तथा विर्मियोंके आक्रमणादि-द्वारा ऐसे कितने ही अवसर आते हैं जब मनुष्य शरीर रहते धमको छोड़नेके लिये मजबूर किया जाता है अथवा मजबूर होता है। अतः धर्मप्राण मानव ऐसे अनिवार्य उपसर्गादिका समय रहते विचारकर धर्म-भ्रष्टतासे पहले ही बड़ी खुशी एवं सावधानीसे उस धर्मको साथ लिये हुए देहका त्याग करते हैं जो देहसे अधिक प्रिय होता है।
दूसरी दृष्ट्रिके अनुसार जब मानव रोगादिकी असाध्यावस्था होते हुए या अन्य प्रकारसे मरणका होना अनिवार्य समझ लेता है तब वह शीघ्रताके साथ धर्मकी विशेष साधना-आराधनाके लिये प्रयत्नशील होता है, किये हुए पापोंकी आलोचना करता