Book Title: Samichin Dharmshastra
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 318
________________ कारिका १२३] सल्लेखनाकी महत्ता एवं आवश्यकता १६३ हुआ महाव्रतों तकको धारण करता है और अपने पास कुछ ऐसे साधर्मा-जनांकी योजना करता है जो उसे सदा धर्म में सावधान रक्वे, धर्मोपदेश सुनावें और दुःख तथा कष्टके अवसरोंपर कायर न होने देवें । वह मृत्युकी प्रतीक्षामें बैठता है, उसे बुलानेकी शीघता नहीं करता और न यही चाहता है कि उसका जीवन कुछ और बढ़ जाय । ये दोनों बातें उसके लिये दोपरूप होती हैं। जैसा कि आगे इस व्रतके अतिचारोंकी कारिकामें प्रयुक्त हुए 'जापित-मरणाऽऽशंस' पदसे जाना जाता है। गलनेवता की महत्ता एवं आवश्यकता त्यागे इल सन्दरखना अथवा समाधिपूर्वक मरगकी महत्ता एवं आवश्यकताको वतलाते हुए स्वामी समन्तभद्र लिखते हैं : अन्तक्रियाधिकरणं । तपःफलं सकलदशिनः स्तुवते। तस्माद्यावद्धि भवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ॥२॥१२३।। — (क) नपका-अगुवत-गुणयन-शिक्षाब्रतादिरूप तपश्चर्याका-- फल अन्तक्रियाके-मल्लेखना, संन्यास अथवा समाधिपूर्वक मरगान --- आधार पम् अवलम्बित-समाश्रिा--है ऐमा सर्वदर्शी सर्वज्ञदेव ख्यापित करते हैं; इसलिये अपनी जितनी भी शक्ति-मामर्थ्य हो उसके अनुसार समाधिपूर्वक मरगमें--सल्लेखनाके अनुष्टानमेंप्रयत्नशील होना चाहिये। ___ व्याख्या-इम कारिकाका पूर्वाध और उममें भी 'अन्तक्रियाधिकरणं तपःलं' यह सूत्रवाक्य बड़ा ही महत्वपूगा है। इसमें बतलाया है कि 'नसका फल अन्तक्रिया ( मल्लखना ) पर अपना आधार रखता है। अर्थात् अन्तक्रिया यदि सुवटि होती हैठीक समाधिपूर्वक मरण बनता है तो किये हुये तपका फल भी सुघटित होता है. अन्यथा उसका फल नहीं भी मिलता । अन्त + 'अन्त:क्रियाधिकरणं' इति पाठान्तरम् ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337