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कारिका १३२-३३] निःश्रेयससुखप्राप्त-सिद्धोंकी स्थिति १७१ अभावको लिये हुए बाधारहित परमनिराकुलतामय स्वाधीन सहजानन्दरूप मोक्ष है-उसे 'निःश्रेयस' कहते हैं।
निःश्रेयससुखप्राप्त-सिद्धोंकी स्थिति विद्या-दर्शन-शक्ति-स्वास्थ्य-प्रह्लाद-तृप्ति-शुद्धि-युजः । निरतिशया निरवधयो निःश्रेयसमावसन्ति सुखम् ॥११॥१३२
'जो विद्या ---केवलज्ञान, दर्शन-केवलदर्शन,शक्ति ---अनन्तवीर्य, म्वास्थ्य-स्वात्मस्थितिरूप परमौदासीन्य ( उपेक्षा ), प्रह्लाद-अनन्तसुख, तृप्ति-विषयाऽनाकाँक्षा, और शुद्धि-द्रव्य-भावादि-कर्ममलरहितता, इन गुणोंसे युक्त हैं, साथ ही निरतिशय हैं-विद्यादि गुणोंमें हीनाधिकताके भावमे रहित है, और निरवधि है--नियत कालकी मर्यादामे शून्य हुए सदा अपने स्वरूपमें स्थिर रहनेवाले हैं, वे (ऐसे सिद्ध जीव ) निःश्रेयस-सुख में पूर्णतया निवास करते हैं।
व्याख्या-यहाँ निःश्रेयस-सुखको प्राप्त होनेवाले सिद्धोंकी अवस्था-विशेषका कुछ निर्देश किया गया है, जिससे उनके निरतिशय और निरवधि होने की बात खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य है और वह इस रहस्यको सूचित करती है कि निःश्रेयससुखको प्राप्त होनेवाले सब सिद्ध ज्ञानादिगुणोंकी दृष्टि से परस्पर समान हैं-उनमें हीनाधिकताका कोई भाव नहीं है--और वे सब ही मदा अपने गुणों में स्थिर रहनेवाले हैं-उनके सिद्धत्व अथवा निःश्रेयसत्वकी कोई सीमा नहीं है। काले कल्पशतेऽपि च गते शिवानां न विक्रिया लच्या । उत्पातोऽपि यदि स्यात् त्रिलोक-संभ्रान्ति-करण-पटुः ॥१३३
‘सैकड़ों कल्पकाल वीत जाने पर भी सिद्धोंके विक्रिया नहीं देखी जाती-उनका स्वरूप कभी भी विकारभाव अथवा वैभाविक परिणतिको प्राप्त नहीं होता। यदि त्रिलोकका संभ्रान्ति-कारक