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कारिका १३०] धर्मानुष्ठान-फल
१६६ ___ 'जिसने धर्म (अमृत) का पान किया है--सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रका सल्लेखनासहित भने प्रकार अनुष्ठान किया है--- वह सव दुःखोंसे रहित होता हुआ उस निःश्रेयसरूप सुख-समुद्रका अनुभव करता है जिसका तीर नहीं-तट नहीं, पार नहीं और इसलिये जो अनन्त है (अनन्तकाल तक रहनेवाला है) तथा उस अभ्युदयरूप मुख-समुद्रका भी अनुभव करता है जो दुस्तर है--जिसको तिरना, उल्लंघन करना कठिन है, और इसलिये जो प्राप्त करक सहजमें ही छोड़ा नहीं जा सकता।'
व्याख्या-उहाँ मल्लेखना-सहित धर्मानुष्ठानके फलका निर्देश करते हुए उमे द्विविधरूपमें निर्दिष्ट किया है---एक फल निःश्रेयमके रूपमें है, दूसरा अम्गुदयके रूपमें । दोनोंको यद्यपि सुखसमुद्र बतलाया है परन्तु दोनों सुख-समुद्रोंमें अन्तर है और वह अन्तर अगली कारिकायाम दिये हुये उनके स्वरूपादिकसे भले प्रकार जाना तथा अनुभवमें लाया जा सकता है। अगली कारिकामें निःश्रेयसको निर्वाण' तथा 'शुद्धलुख' के रूपमें उल्लेखित किया है, साथ ही नित्य' भी लिखा है और इससे यह स्पष्ट है कि अभ्युदयरूप जो सुख-समुद्र है वह पारमार्थिक न होकर सांसारिक है-ऊँचेसे ऊँचे दर्जेका लौकिक सुख उसमें शामिल है-परन्तु निराकुलता-लक्षण सुखकी दृष्टि से वह असली खालिस स्वाश्रित एवं शुद्ध सुख न होकर नकली मिलावटी पराश्रित एवं अशुद्ध सुखक रूपमें स्थित है और सदा स्थिर भी रहनेवाला नहीं है; जबकि निःश्रेयस सुख सदा ज्योंका त्यों स्थिर रहनेवाला है-उसमें विकारके हेतुका मूलतः विनाश हो जानेके कारण कभी किसी विकारकी संभावना तक नहीं है। इसीसे निःश्रेयस सुखको प्रधानता प्राप्त है और उसका कारिकामें पहले निर्देश किया गया है। अभ्युदय सुखका जो स्वरूप १३५ वीं कारिकामें दिया है उससे वह यथेष्ट पूजा, धन,