________________
समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०६ आज्ञा, बल, परिजन, काम और भोगके अभावमें होनेवाले दुःखोंके अभावका सूचक है, उन्हीं सब दुःखोंका अभाव उसके स्वामीके लिये 'सर्वेदुखैरनालीढः' इस वाक्यके द्वारा विहित एवं विवक्षित है। वह अगली कारिकामें दिये हुये जन्म-जरा-रोग
और मरणके दुःखोंस, इष्ट-वियोगादि-जन्य शोकोंसे और अपनेको तथा अपने परिवारादिको हानि पहुँचनेके भयोंसे परिमुक्त नहीं होता; जबकि निःश्रेयस-सुखके स्वामीके लिये इन सब दुःखोंकी काई सम्भावना ही नहीं रहती और वह पूर्णतः सर्व-प्रकारके दुःखोंसे अनालीढ एवं अस्पृष्ट होता है । ये दोनों फल परिणामोंकी गति अथवा प्रस्तुत रागादिपरिणतिकी विशिष्टताके आश्रित है।
प्रस्तुत कारिकामें दोनों सुख-समुद्रोंके जो दो अलग अलग विशेषण क्रमशः 'निम्तीर' और 'दुस्तर' दिये हैं वे अपना खास महत्व रखते हैं। जो निस्तीर है उस निःश्रेयस सुख-समुद्रको तिर कर पार जानेकी तो कोई भावना ही नहीं बनती-वह अपनेमें पूर्ण तथा अनन्त है । दूसरा अभ्युदय-सुख-समुद्र सतीर होनेसे ससीम है. उसके पार जाकर निःश्रेयस सुखको प्राप्त करनेकी भावना ज़रूर होती है; परन्तु वह इतना दुस्तर है कि उसमें पड़कर अथवा विषयभोगकी दलदल में फँसकर निकलना बहुत ही कठिन हो जाता है-विरले मनुष्य ही उसे पार कर पाते हैं।
निःश्रेयस-सुख-स्वरूप जन्म-जरा-ऽऽमय-मरणैःशोकवुखैर्भयेश्च परिमुक्तम् । निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ॥१०॥१३१॥
'जो जन्म (देहान्तर-प्राप्ति) जरा, रोग, मरण (देहान्तर-प्राप्तिके लिये वर्तमान देहका त्याग ), शोक, दुःख, भय और ( चकार या उपलक्षणसे ) राग-द्वेष-काम-क्रोधादिकसे रहित, सदा स्थिर रहनेवाला शुद्धसुख-स्वरूप निर्वाण है-सकल विभाव-भावके