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समीचीन धर्मशास्त्र
[ श्र० ६
अन्तक्रिया भवन पर कलश चढ़ानेका काम करती हैं । अन्तउपवासकी बात शक्तिके ऊपर निर्भर है, यदि शक्ति न हो तो उसे न करनेसे कोई हानि नहीं ।
सना अतिचार
जीवित - मरणाऽऽशंसे भय-मित्रस्मृति-निदान - नामानः । सल्लेखनाऽतिचाराः पंच जिनेन्द्रेः समादिष्टाः ||८||१२६॥
'जीने की अभिलाषा, (जल्दी ) मरनेकी अभिलाषा, (लोक-परलोक-सम्बन्धी ) भय, मित्रोंकी (उपलक्षरण से स्त्री पुत्रादिकी भी ) स्मृति (याद) और भावी भोगादिककी अभिलाषारूप निदान: ये सल्लेस्वना व्रत के पाँच प्रतिचार ( दोष ) जिनेन्द्रोंने—जैन तीर्थंकरोंने ( आगम में ) बतलाये हैं ।'
व्याख्या-- जो लोग सल्लेखनाव्रतको अंगीकार कर पीछे अपनी कुछ इच्छाओं की पूर्ति के लिये अधिक जीना चाहते हैं या उपसर्गादिकी बेदनाओंको समभाव से सहने में कायर होकर जल्दी मरना चाहते हैं वे अपने सल्लेखनात्रतको दोप लगाते हैं। इसी तरह वे भी अपने उस व्रतको दृषित करते हैं जो किसी प्रकार के भय तथा मित्रादिका स्मरणकर अपने चित्तमें उद्वेग लाते हैं अथवा अपने इस व्रतादिके फलरूपमें कोई प्रकारका निदान बाँधते हैं । अतः सल्लेखनाके उन फलोंको प्राप्त करनेके लिये जिनका आगे निर्देश किया गया है इन पाँचों दोपोंमेंसे किसी भी दोषको अपने पास फटकने देना नहीं चाहिये ।
धर्मानुष्ठान- फल
निःश्रेयसमभ्युदयं निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम् । निष्पवति पीतधर्मा सर्वैर्दु: खैरनालीढः || ६ || १३० |
'मरणाशंसा' इति पाठान्तरम् ।