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समीचीन धर्मशास्त्र
[ श्र० ६
क्रियासे पूर्व का वह तप कौनसा है जिसके फलकी बातको यहाँ उठाया गया है ? वह तप अणुव्रत - गुणव्रत और शिक्षाव्रतात्मक चारित्र है जिसके अनुष्ठानका विधान ग्रन्थ में इससे पहले किया गया है । सम्यक चारित्र के अनुष्ठानमें जो कुछ उद्योग किया जाता और उपयोग लगाया जाता है वह सब 'तप' कहलाता है । इस तपका परलोक-सम्बन्धी यथेष्ट फल प्रायः तभी प्राप्त होता है जब समाधिपूर्वक मरण होता है; क्योंकि मरके समय यदि धर्मानुष्ठानरूप परिणाम न होकर धर्मकी विराधना हो जाती है तो उससे दुर्गतिमें जाना पड़ता है और वहाँ उन पूर्वोपार्जित शुभ कर्मों के फलको भोगनेका कोई अवसर ही नहीं मिलतानिमित्त के अभाव में वे शुभकर्म विना रस दिये ही खिर जाते हैं। एक बार दुर्गतिमें पड़ जानेसे अक्सर दुर्गातिकी परम्परा बन जाती है और पुनः धर्मको प्राप्त करना बड़ा ही कठिन हो जाता है । इसीसे शिवाजी अपनी भगवती यारावनामे लिखते हैं कि 'दर्शनज्ञानचारित्ररूप में चिरकाल तक निरतिचार प्रवृत्ति करनेवाला मनुष्य भी यदि नरके समय उस धमकी विराधना कर बैठता है तो वह अनन्त संसारी तक हो जाता है :
सुचिरमवि गिरदिचारं विहरिता गाणदंसण चरिते । भरणे विराधयित्ता अनंतसंसार दी ||१५|| इन सब बातोंसे स्पष्ट है कि अन्तसमय धर्मपरि सावधानी न रखनेसे यदि मरण बिगड़ जाता है तो जयः नारे ही किये काये पर पानी फिर जाता है । इसीसे अन्न समय में परिणामोंको संभालने के लिये बहुत बड़ी सावधानी रखनेकी
जैसा कि भगवती आराधनाकी निम्न गाथासे प्रकट है :चरसम्म तम्मि जो उज्जमो य ग्राउंजरगा य जो होई । सो चेत्र जिहि तवो भरिणदो असढं चरंतस्स ॥१०॥