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कारिका १२४-१२५] सल्लेखना-विधि जरूरत है और इसीसे प्रस्तुत कारिकामें इस बात पर जोर दिया गया है कि जितनी भी अपनी शक्ति हो उसके अनुसार समाधिपूर्वक मरणका पूरा प्रयत्न करना चाहिये। । इन्हीं सब बातोंको लेकर जैनसमाजमें समाधिपूर्वक मरणको विशेष महत्व प्राप्त है। उसकी नित्यकी पूजा-प्रार्थनाओं आदिमें 'दुक्खख प्रो कम्मखत्रो समाहिमरणं च वोहिलाहो वि' जैसे वाक्योंद्वारा समाधिमरणकी बरावर भावना की जाती है और भगवती श्राराधना-जैसे कितने ही ग्रन्थ उस विषयकी महती चर्चाओं एवं मरण-समय-सम्बन्धी सावधानताकी प्रक्रियाओंसे भरे पड़े हैं । लोकमें भी 'अन्त समा सो समा' 'अन्त मता सो मता'
और 'अन्न भला सो भला' जैसे वाक्योंके द्वारा इसी अन्तक्रियाके महत्वको ख्यापित किया जाता है। यह क्रिया गृहस्थ तथा मुनि दोनोंके ही लिये विहित है।
सल्लेग्यना-विधि स्नेहं वरं संगं परिग्रहं चाऽपहाय शुद्धमनाः । स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचनैः ॥३॥१२४ आलोच्य सर्वमेनः कृति-कारितमनुमतं च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निःशेषम् ॥४॥१२शा ____(समाधिमरणाका प्रयत्न करनेवाले सल्लेखनाव्रतीको चाहिये कि वह) स्नेह ( प्रीति, रागभाव ), वैर (द्वेषभाव ), संग ( सम्बन्ध, रिश्तानाता ) और परिग्रह ( धन-धान्यादि बाह्य वस्तुओंमें ममत्वपरिणाम ) को छोड़कर शुद्धचित्त हुआ प्रियवचनोंसे स्वजनों तथा परिजनोंको (स्वयं ) क्षमा करके उनसे अपनेको क्षमा करावे। और साथ ही स्वयं किये-कराये तथा अपनी अनुमोदनाको प्राप्त हुए सम्पूर्ण पापकर्मकी निश्छल-निर्दोष आलोचना करके पूर्ण महाव्रतकोपाँचों महाव्रतोंको-मरणपर्यन्तके लिये धारण करे।'