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कारिका १२२ ]
सल्लेखना - लक्षण
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कषायके श्रवेशवश कुछ नहीं किया जाता, प्रत्युत उन्हें जीता जाता है तथा चित्तकी शुद्धिको स्थिर किया जाता है और इसलिये सल्लेखना कोई अपराध, अपघात या खुदकुशी ( Suicide ) नहीं है । उसका 'अन्तक्रिया' नाम इस बातको सूचित करता है कि वह जीवन के प्रायः अन्तिम भागमें की जाने वाली समीचीन क्रिया है और सम्यक चारित्र के अन्त में उसका निर्देश होनेसे इस बातकी भी सूचना मिलती है कि वह सम्यक् चारित्रकी चूलिकाचोटीके रूपमें स्थित एक धार्मिक अनुष्ठान है । इसीसे इस क्रिया द्वारा जो देहका त्याग होता है वह आत्म-विकास में सहायक अदादि पंचपरमेष्टीका ध्यान करते हुए बड़े यत्नके साथ होता है; जैसा कि कारिका नं० १२८ से जाना जाता है— यों ही विष खाकर, कूपादिमें डूबकर गोली मारकर या अन्य अस्त्रशस्त्रादिकसे वात पहुँचाकर सम्पन्न नहीं किया जाता ।
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'सत्' और 'लेखना' इन दो शब्दोंसे 'सल्लेखना' पढ़ बना है । 'सत्' प्रशंसनीयको कहते हैं और 'लेखना' कृशीकरण क्रियाका नाम है । सल्लेखनाके द्वारा जिन्हें कृश अथवा क्षीरा किया जाता है वे हैं काय और कपाय । इसीसे सल्लेखनाके काय - सल्लेखना और कपाय - सल्लेखना ऐसे दो भेद आगम में कहे जाते हैं। यहाँ अन्तःशुद्धिके रूप में कपाय- सल्लेखनाको साथ में लिये हुए मुख्यतासे काय सल्लेखनाका निर्देश है, जैसाकि यहाँ तनुविमचान' पदसे और आगे 'तनुत्यजेत् ' (१२८) जैसे पदों के प्रयोगके साथ आहारको क्रमशः घटानेके उल्लेखसे जाना जाता है ।
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इस कारिका 'निःप्रतीकारे' और 'धर्माय' ये दो पद खास तौरसे ध्यान देने योग्य हैं । 'निःप्रतीकार' विशेषण उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा, रोग इन चारोंके साथ -- तथा चकारसे जिस दूसरे सदृश कारणका प्रहण किया जाय उसके भी साथ - सम्बद्ध है और इस बातको सूचित करता है कि अपने ऊपर आए हुए